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________________ 163 भॉति सूखी लकड़ी में आग। यह 'प्रसाद' सभी रसों का धर्म अथवा स्वरूपविशेष है और इसकी अवस्थिति सभी रचनाओं की विशेषता हुआ करती है 'चित्तं व्याप्नोति या क्षिप्तं शुष्केन्धनमिवानलः।। स प्रसादः समस्तेषु रसेषु रचनासु च।" काव्यप्रकाशकार ने 'प्रसाद गुण' का यह स्वरूप विवेक किया है - शुष्केन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसैव यः। व्याप्नोत्यन्यत्प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः।' अर्थात् जिस प्रकार सूखे इन्धन मे अग्नि तथा स्वच्छ में जल सहसा व्याप्त हो जाता है, इसी प्रकार जो गुण सहसा ही अन्य अर्थात् चित्त में व्याप्त होता है, वह प्रसाद मुण है, वह सर्वत्र विद्यमान रहता है। __ प्रसाद के अभिव्यञ्जक साधन वे शब्द हैं, जिनके अर्थ उनके श्रवण मात्र से ही झलक उठते है। इस प्रकार साहित्यदर्पणकार काव्यप्रकाशकार एवं आचार्य आनन्दवर्धन ने माधुर्य, ओज, प्रसाद तीन काव्य गुणों की मान्यता प्रदान की है। अतः विभिन्न आचार्यों के विचारों पर दृष्टि डालने के पश्चात् काव्य गुण के तीन प्रकारों को ही मान्यता प्रदान की जा सकती है। आचार्य मेरूतुङ्ग कृति में विभिन्न गुणों में अभिव्यक्ति किस प्रकार हुई है, इस पर सम्प्रति दृष्टि क्षेप किया जा रहा है - "कश्चित्कान्तामविषयसुखानीच्छुरत्यन्त धीमानेनोवृत्तिं त्रिभुवनगुरूर' स्वैरमुज्झाञ्चकार। सा. द. इ. ५,६ काव्य प्रकाश ८/७०
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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