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________________ 160 यह माधुर्य गुण करूण विप्रलम्भ शृङ्गार तथा शान्त रस में उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर हो जाता है क्योंकि क्रमश: अत्यधिक द्रुति का कारण होता है करूणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम् । ध्वनि दार्शनिक आनन्द वर्धन की ये पंक्तियाँ भी काव्य प्रकाशकार की मान्यता को हो प्रमाणित करती है - शृङ्गारे विप्रलम्भाख्ये करूणे च प्रकर्षवत् माधुर्यमार्दतां याति यतस्तत्राधिकं मनः।' आचार्य विश्वनाथ ने भी माधुर्य गुण के क्षेत्र का निरूपण करते हुए कहा है कि यह माधुर्य संभोग शृङ्गार, करूण रस, विप्रलम्भ शृङ्गार और शान्त रस मे अनुगत रहा करता है और इनमे भी उत्तरोत्तर मधुर लगा करता है'संभोगे करूणे विप्रलम्भे शान्तेऽधिकं क्रमात्।" ___ इस प्रकार से यह 'माधुर्य' सम्भोग शृङ्गार की अपेक्षा विप्रलम्भ शृङ्गार में और विप्रलम्भ शृङ्गार की अपेक्षा करूण रस में और करूण रस की अपेक्षा शान्त रस मे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट लगा करता है क्योकि सहृदय के हृदय की आता या द्रवीभावमयता संभोग की अपेक्षा विप्रलम्भ में और विप्रलम्भ की अपेक्षा करूण मे और करूण की अपेक्षा शान्तरस मे अधिक बढ़ी रहा करती है इस 'माधुर्य' के अभिव्यञ्जन के जो निमित्त है वे ये हैं काव्य प्रकाश ८/पृ. ४१७ ध्वन्यालोक लोचन टीका २/८ सा. द. ८/२/ पृ. सं. ६४४
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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