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________________ 125 कर्मास्य साधुवादाश्रुवेपथुस्वेदगद्गदाः। हर्षावेग धृति प्राया भवन्ति व्यभिचारिणः।। अर्थात् अलौकिक पदार्थों (के दर्शन श्रवण आदि) से उत्पन्न होने वाला विस्मय (स्थायीभाव) ही जिसका जीवन ( आत्मा) है, वह अद्भुत रस हैं। साधुवाद अश्रु, कम्पन, प्रस्वेद, तथा गद्गद होना आदि उसके कार्य अनुभाव है, हर्ष आवेग और धृति इत्यादि व्यभिचारी भाव है। आचार्य विश्वनाथ ने अद्भुत रस के सन्दर्भ मे कहा है अद्भुतो विस्मयस्थायिभावो . . . . व्यभिचारिणः।। अद्भुत वह रस है जिसे ' विस्मय' के स्थायी भाव का अभिव्यञ्जक कहा करते हैं इसका वर्ण पीत है। इसके देवता गन्धर्व हैं। इसका आलम्बन अलौकिक वस्तु है। अलौकिक वस्तु का गुण-कीर्तन इसका उद्दीपन हैं। स्तम्भ, खेद, रोमाञ्च, गद्गदस्वर, संभ्रम, नेत्रविकास आदि-आदि इसके अनुभाव है। इसमें वितर्क, आवेग संभ्रम हर्ष आदि व्यभिचारी भाव परिपोषण का काम करते हैं।' (५) रौद्ररसः - रौद्ररस का परिचय देते हुए शारदा तनय का कहना है कि स्वरगुण युक्त विभाव जब स्वानुकूल अन्य भावो के साथ स्थायीभाव में विद्यमान रहता है तब वह स्वकीय अभिनय के सहारे प्रेक्षकों का रजोगुण तथा तमोगुण युक्त मन अहंकार के साथ स्थायीभाव के जिस आस्वाद्य रूप का अनुभव करता है, उसे रौद्ररस कहा जाता है। इस रस में चेष्टा रजोगुण और तमोगुण विशिष्ट रहती है। साहित्यदर्पण ३/२४२ से २४४ भाव प्रकाशन- एक समालोचनात्मक अध्ययन पृ. सं. १४८
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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