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________________ 124 रस होता है। और वह दया युद्ध और दान अनुभावो के योग से इस प्रकार का होता है। उसमे मति गर्व, धृति, प्रहर्ष ( व्यभिचारिभाव) हुआ करते हैं। साहित्यदर्पणानुसार वीर रस का स्वरूप - उत्तमप्रकृतिर्वीर . . . . . . . समन्वितश्चतुर्धा स्यात् ।।' अर्थात् 'वीररस' वह है जिसे 'उत्साह' नामक स्थायीभाव का आस्वाद कहा गया हैं। इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति है। इसका वर्ण स्वर्ण-वर्ण है और इसके देवता है महेन्द्र। इसके 'आलम्बन' विभाव विजेतव्य शत्रु आदि है और इन विजेतव्य शत्रु आदि की चेष्टाये इसके उद्दीपन विभाव हैं। युद्धादि की सामग्री किं वा अन्यान्य सहायक साधनों के अन्वेषण इसके 'अनुभाव' रूप है। धृति, मति, गर्व, स्मृति तर्क, रोमाञ्च आदि आदि इसके व्यभिचारी भाव है। इसके ये ४ भेद स्पष्ट है - (१) दानवीर (२) धर्मवीर (३) युद्धवीर (४) दयावीर। तात्पर्य यह है कि वीर रस ही दान धर्म-युद्ध और दयावीर रूप मे चतुर्विध प्रतीत हुआ करता है। (४) अद्भुतरसः - अद्भुत की उत्पत्ति अहंकारहीन रजोमिश्रित वीररस की आधार भूत स्थितियो से मानी जाती है। इस रस की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए शारदातनय का कहना है कि असुरो का वध करते हुए जब शंकर ने पार्वती की ओर देखते तथा मुस्कुराते हुए असुरों के असंख्य बाणों को एक ही बाण से जला दिया उस समय समस्त प्राणियों में अद्भुत भाव जागृत हुआ इसलिए वीररस से ही अद्भुत रस की उत्पत्ति मानी जाती है।' अद्भुत रस के विषय में आचार्य धनञ्जय ने कहा है'अतिलोकैः पदार्थैः स्याद्विस्मयात्मा रसोऽयुतः।। साहित्यदर्पण ३/२३२ से २३४ दशरूपकम् ४/७८-७९
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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