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Kasaya Pahuda Sutra [4 Anubhagavibhakti 96. Nanajivanam bhangavicayo. 97. Tatra atthapadam. 98. Je ukkassanubhagavihattiya te anukkaassanubhagassa avihattiya. 99. Je anukkaassanubhagassa vihattiya te ukkassanubhagassa avihattiya. 100. Jesi padadhi atthi tesa padadam, akamme avyavaharo. 101. Edena atthapadena. 102. Savve jiva micchatthassa ukkassanubhagassa siya savve avihattiya. 103. Siya avihattiya ca vihattio ca. 104. Siya avihattiya ca vihattiya ca. 105. Anukkaassanubhagassa siya savve jiva vihattiya. 106. Siya vihattiya ca avihattio ca. 107. Siya antarakala? Jaghanya antarakala antaramuhurtta hai aura utkrsta antarakala kuchha kama ardhapadgalaparivartana hai.
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________________ १६६ कसाथ पाहुड सुस [४ अनुभागविभक्ति ९६. णाणाजीवेहि भंगविचओ। ९७. तत्थ अट्ठपदं। ९८. जे उक्कस्साणुभागविहत्तिया ते अणुक्कस्सअणुभागस्स अविहत्तिया। ९९. जे अणुक्कस्सअणुमागस्स विहत्तिया ते उकस्सअणुभागस्स अविहत्तिया । १००. जेसि पयडी अत्थि तेसु पयदं, अकस्मे अव्यवहारो । १०१. एदेण अट्ठपदेण । १०२ सव्वे जीवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया । १०३. सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च। १०४. सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च। १०५. अणुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । १०६. सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च । १०७. सिया अन्तरकाल है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥९०-९५॥ चूर्णिसू०-अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अनुभाग-विभक्तिके भंगोका निर्णय किया जाता है-उसके विपयमें यह अर्थपद है । जिसके जान लेनेसे प्रकृत अर्थका भलीभॉति ज्ञान हो, अर्थपद उसे कहने हैं । जो जीव उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले है, वे अनुत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले नहीं है । क्योकि, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग एक साथ नहीं रह सकते । जो जीव अनुत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले होते है, वे उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले नहीं होते हैं। क्योकि, दोनोका परस्पर विरोध है। जिन जीवोके मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ सत्तामे होती है, उन जीवोमे यह प्रकृत अधिकार है । क्योकि मोहकर्मसे रहित जीवोमे भंगोका व्यवहार सम्भव नहीं है। इस उपयुक्त अर्थपढके द्वारा नानाजीवोकी अपेक्षा भंगोका निर्णय किया जाता है ।। ९६-१०१ ॥ चूर्णिसू ०-कदाचित् किसी कालमे सर्व जीव मिथ्यात्वकर्म सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागके सभी विभक्तिवाले नहीं होते है । क्योकि, मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ अवस्थान-कालसे उसके विना अवस्थानको काल वहुत पाया जाता है। कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकर्म-सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाले नहीं होते है और कोई एक जीव उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाला होता है । क्योकि, किसी कालमे मिथ्यात्वकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले जीवोके साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले एक जीवका पाया जाना सम्भव है । कदाचित् अनेक जीव मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले नहीं होते है और अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते है । क्योंकि, किसी समय उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति नहीं करनेवाले जीवोके साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति करनेवाले अनेक जीवोका पाया जाना सम्भव है। इस प्रकार मिथ्यात्वकर्म-सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके ये तीन भंग होते है । ॥ १०२-१०४ ॥ चूर्णिम् ०-मिथ्यात्वकर्मके अनुत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सर्व जीव विभक्तिवाले होते हैं । क्योंकि, किसी कालमे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोकी सान्तरभावके २ जेण अवगएण भंगा अवगम्मति तमद्रपट । जयधक
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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