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________________ (१६) ऊपर की कथा से यह स्पष्ट है कि भगवान धर्म के उपदेशक और सारथी अवश्यमेव है. __पहला ब्याख्यान कितनेक आचार्य यहां पर समाप्त करते हैं. धर्म के चार भेद दान, शील, तप, भाव, अथवा चार प्रकार का साधू साध्वी श्रावक, श्राविकाओं का कर्तव्य शासन स्वरूप बताने वाले धर्म में चक्रवर्ती समान, भव समुद्र में दीपक समान, शरण लेने योग्य आधारभूत ॥ कोई भी कारण से न हटने वाला श्रेष्ठ केवल ज्ञान और केवल दर्शन के धारक, दूर होगया है अज्ञान जिनका ऐसे पूर्ण ज्ञानी, रागद्वेष को जीतने वाला और भव्य माणियों को जीतने का मार्ग बताने वाले आप तर गये हैं और दूसरों को तारने वाले आप बोध पाये हुवे हैं और दूसरों को बोध देने वाले आप मुक्त हैं और दूसरों को सुक्ति देने वाले, हे जिनेश्वर आप सर्वज्ञ हैं और सब देखने वाले हैं श्राप शिव, अचल, निरोग, अनंत अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावर्ति सिद्धी नाम की गति के स्थान को प्राप्त हुए है इसलिये, हे जिनेश्वर आपको नमस्कार है आपने भय जीत लिया है । इस प्रकार से सर्व तीर्थकरों को जो मोक्ष में गये है इन्द्र महाराज नमस्कार करते हैं) ____नमस्कार हो श्रमेण भगवंत श्रीमत् महावीर मभू को कि जो धर्म की शरूआत करेंगे जिनमें सर्व उत्तमोत्तम गुण है। पूर्व के २३ तीर्थंकरों के कहे अनुसार ही आप २४ वा तीर्थंकर अर्थात् वर्तमान चौवीसी के अन्तिम तीर्थकर उत्पब हुए है आप इसी भव में कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त करोगे और दूसरे अनेक प्राणियों की अभिलाषा पूर्ण करोगे इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूं आप भरत क्षेत्र में देवानंदा की कुंख में है और मैं सौधर्म देवलोक में हूं कृपया आप मुझे सुधा दृष्टि से देखें ऐसे विनय पूर्वक वचन वोलकर और फिर दूसरी दफा नमस्कार करकर इन्द्र अपने सिंहासन पर पूर्व दिशा की तर्फ मुख करके बैठा और विचार करने लगा तो नीचे लिखे हुवे संकल्प विकल्प उसके ( इन्द्र के ) दिल में उत्पन्न हुएं. सूत्र ( १६ ) न खलु एयं भूध, न एयं भव्वं, न एयं भविस्सं, जंणं अरिहंता वा चकवट्टीवा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
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