SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१७०) शां विभूपित देखकर इन्द्र का विनय रखने को उसकी पूजन में भेद न पड़े इस लिये प्रभु के चरणों में जल डाला इन्द्रने प्रसन्न होकर कुबेर द्वारा ऋपभदेव के लिय जो सब समृद्धि से भरपूर नगरी बनाई. जो १२ योजन लंबी है योजन चौडी थी उसका नाम "विनीना" रखा और शत्रु के योधा से अजिन थी इमलिय दूसरा नाम अयोध्या हुआ। उपभोग राजन्य क्षत्रिय एस चार कुलों की स्थापना की। · कल्पवृक्ष की बेटी से युगलिकों को खाने की मुकली हुई उससे जो फल फुल मिले वो खान लगे परंतु पाचन नहीं होने से ऋषभदेव ने खाने की विधि वताई पहिले छिलके उतारना बताया (२) पानी में भिगो कर खाना बताया, (३) बगल में अनाज रख गरम कर खाना बताया अंत में अग्नि वृक्षों के घर्षण से उत्पन्न हुआ देवकर युगलिक गभराय लेने लगे जलकर भागे, प्रभु का फर्याद की प्रभु ने मट्टी के बरतन बना कर उनको पहिले बताया कि ऐसे वरतन बनाकर उसको पका कर उसमें अनाज पका कर खाओ कुंभार कला के बाद प्रभु ने लोहार, चिनारा, कपडा बुनना, और हजाम की ऐसी पांच मुख्य कला और प्रत्येक के २० भेद होने से कुल १०० मंद शीखाय । उसमे णं अरहा कोसलिए दक्खे दक्खपणे पडिलवे अल्लाणे भहए विणीए वीसं पुबसयसहस्साई कुमारवासमज्झे वसइ, वसित्ता तेवहि पुवसयसहस्साई रज्जवासमझे वसइ, तेवडिं च पुब्बसयसहस्साई रज्जवासमज्झे वसमाण लहाइयायो गणियप्पहाणायो सउणरुपपज्जवसापाओ वावरि कलायो, चउपसहि महिलागुणे, सिप्पसयं च कम्नाणं, तिनिवि पयाहियाए उवदिसइ, उदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचह, अभिसिचित्ता पुणरवि लोअतिपहिं जिअकप्पिपहिं देवेहिं ताहिं इट्टाहिं जाव वग्गूहि, सेसं तं चेव सव्वं भाणिग्रव्य, जाव दाणं दाइमाणं परिभाइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy