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________________ प्रस्तावना कि यह धर्मशर्माभ्युदयके कर्ता श्रीहरिचन्द्रकी रचना नहीं है पर धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धर चम्पूके भावों तथा शब्दों में जो समानता है उससे जान पड़ता है कि दोनोंका कर्ता एक होना चाहिए। इसके सिवाय जीवन्धर चम्पूकी जो हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है उसके पुष्यिका वाक्यों में इसके कर्ता हरिचन्द्रका ही उल्लेख किया गया है। ग्रन्थान्तमें ग्रन्धकर्ताने स्वयं अपने नामका उल्लेख किया है।' आंग्लविद्वान् डाक्टर कीथ महाशय भी हरिचन्द्रको ही जीवन्धर चम्पूका कर्ता मानते हैं। यह कहना कि धर्मशर्माभ्युदय देखकर किसी पृष्ठवी कविने उसके भाव और शब्दोंको आत्मसात् कर इसकी रचना की है, यह उचित नहीं जान पड़ना। मर्मत्र विद्वान्की दृष्टिमें यह बात अनायास आ जाती है कि यह वात कविने अन्यत्रसे ली है और यह स्वतः लिखी है। अन्ततोगत्वा नकल नकल ही है। जिस प्रकार सोमदेवके यशस्तिलक चम्पूके नीतिभाग और नीति वाक्यामृतमें एककर्तृक होनेके कारण पद-पद पर सादृश्य पाया जाता है उसी प्रकार जीवन्धर चम्पू और धर्मशर्माभ्युदयमें एककर्तृक होनेसे पद पद पर साहश पाया जाता है। दोनों ही ग्रन्थों में इसका प्रवाह, अलंकारकी पुट जौर शब्दविन्यासकी शैली एक-सी है। यहाँ मैं दोनों ग्रन्थोंके कुछ अवतरण देकर इस विपयको स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ। ____ जीवन्धर चम्पूके प्रारम्भमें भगवान् ऋषभदेव, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, महावीर, रत्नत्रय तथा जिनवाणीको नमस्कार किया गया है, इसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय में भगवान् ऋपभदेव, चन्द्रप्रभ,शान्तिनाथ, महावीर, रत्नत्रय और जिनवाणीको नमस्कार किया गया है। धर्मशर्माभ्युदय में कथानायक होनेसे भगवान् धर्मनाथको भी नमस्कार किया गया है। इनके सिवाय धर्मशर्माभ्युदयमें एक श्लोक द्वारा समुदाय रूपमें समस्त जिनेन्द्रोंको और जीवन्धरचम्पूमें समस्त सिद्धोंको नमस्कार किया है। मङ्गलके बाद दोनों ही ग्रन्थों में एक-एक श्लोकके द्वारा पूर्वाचार्यों अथवा पूर्व कवियोंका स्मरण किया गया है । दोनों ग्रन्थोंका कुछ सादृश्य देखिए । जीवन्धर चम्मू ___धर्मशर्माभ्युदय अपारसंसारसन्तमसान्धीकृतजीवलोकस्य पुरपार्थचतुष्टयप्रकाशनायेव दिवाकरयुगलनिशाकरयुगलव्याजेन प्रदीपचतुष्टयमाविभ्राणे---पृष्ठ ४ अपारसंसारतमस्यपारे __ सन्तश्चतुर्वर्गफलानि सर्वे । इतीय यो द्वि-द्विदिवाकरेन्दुव्याजेन धत्ते चतुरः प्रदीपान् ॥ -सर्ग : श्लोक ३५ उदयास्ताचलमध्यसञ्चारखिन्नस्य सरोजबन्धोविश्रमाय वेधसा विरचितैरिव धराधरैर्धान्यराशिभिरुद्रासितम्। -पृष्ठ ५ जनैः प्रतिग्रामसमीपमुच्चैः कृता वृषाड्यवरधान्यकूटा । यत्रोदयास्ताचलमध्यगस्य विश्रामशैला इव भान्ति भानोः । -सर्ग १ श्लोक ४८ १. अष्टाभिः स्वगुणैरयं कुरुपतिः पुष्टोऽथ जीवन्धरः सिद्धः श्रीहरिचन्द्रवाङ्मयमघुस्यन्दिप्रसूनोच्चयः । भक्त्याराधितपादपद्युगलो लोकातिशायिसभां निस्तल्यां निरपायसौख्यलहरी संप्राप मुक्तिश्रियम् ॥ ---५८ लम्ब ११ जी०च०
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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