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________________ ३६ जीवन्धरचम्पू रस नहीं मानते अतः उनके मत से आठ ही रस माने गये हैं । इनके सिवाय भरत सुनिने वात्सल्यको भी रस माना है तब १० भेद होते हैं । आठ, नौ और दश इन तीन विकल्पोंमें ६ का विकल्प अनुभवगम्य, युक्तिसंगत और अधिक जनसंगत है । काव्यका प्रवाह- काव्यका प्रवाह गद्यकी अपेक्षा अधिक आनन्ददायी होता है इसलिए वह इतने वेगसे प्रवाहित हुआ कि उसने गद्यरचनाको एक प्रकार से तिरोभूत ही कर दिया । धर्मशास्त्र, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विषयोंके ग्रन्थ काव्य रूपमें ही लिखे जाने लगे । यही कारण रहा कि संस्कृत साहित्य में पद्यमय जितने ग्रन्थ हैं उतने गद्यमय ग्रन्थ नहीं हैं । संस्कृत साहित्य के विपुल भाण्डारमें जब गद्यमय ग्रन्थोंकी और दृष्टिपात करते हैं तब कादम्बरी, श्रीहर्षचरित, दशकुमार चरित, गद्यचिन्तामणि, तिलकमञ्जरी आदि दश पाँच ग्रन्थोंपर ही दृष्टि रुक जाती है। पर पद्यमय ग्रन्थोंपर अव्याहत गति से आगे बढ़ती जाती है । चम्पू ग्रन्थोंका जो गद्यकी अपेक्षा अधिक विस्तार हुआ है वह साथ में पद्यके रहनेसे ही हुआ है । काव्यमें गुण अलंकार और रीति- रसके बाद काव्यके सौष्ठवको बढ़ानेवाले अलंकार गुण और रीति हैं । रीतिका स्थान शरीर के संस्थान के समान है । गुण, दया, दाक्षिण्यादि के समान उत्कर्षाधायक है और अलंकार शब्द तथा अर्थकी शोभा बढ़ानेवाले अस्थायी धर्म हैं । इनका स्थान मानव शरीरपर धारण किये हुए कटककुण्डलादिके समान है । एक समय था जब कविताके अन्दर कवि लोग शक्ति भर अलंकार रखनेका प्रयत्न करते थे पर अब समय बदल गया है, आजका मानव कवितामें अर्थको जितना पसन्द करता है उतना अलंकारको नहीं । एक समय था कि महिलाएँ नाना प्रकार के आभूषणोंसे लदी रहती थीं पर आजकी स्त्रीका चित्त आभूषणोंकी उपेक्षा करने लगा है । कवि अपनी धारासे लिखता जाता है उसमें अनायास जो अलंकार आते जाते हैं उन्हें कवि यथा स्थान बैठाता जाता है पर जहाँ कवि अलंकार बैठानेकी भावनासे जो कुछ लिखता या कहता है वहाँ उसकी कृत्रिमता सामने आ जाती है, कालिदासकी कविता में अलंकारकी विरलता होने पर भी सौन्दर्य है । इसका कारण यही है कि वे अलंकारके पीछे नहीं पड़े हैं। अपने युगमें अलंकारोंका क्रमिक विकास होते-होते चरम सीमा तक पहुँचा है । यहाँ अलंकारोंका नामोल्लेख तथा स्वरूपचित्रणकी आवश्यकता नहीं है । गुणोंके विषयमें भी आचार्यों में विभिन्न मत मिलते हैं । वामनने १ श्लेष, २ प्रसाद ३ समता, ४ समाधि, ५ माधुर्य, ६ ओज, ७ सौकुमार्य, ८ अर्थव्यक्ति, ६ उदारता और १० कान्ति दश गुण माने हैं, तो राजा भोजने २४ गुण मान रक्खे हैं । किन्हींने आठ ही गुण माने हैं और किन्होंने अन्तमें चलकर माधुर्य, ओज और प्रसाद ये तीन गुण माने हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये तीन गुण काव्यके उत्कर्षको बढ़ानेमें अत्यन्त सहायक होते हैं । 1 रचनाकी शैलीको रीति कहते हैं, कुछ लोग अधिक लम्बे समासवाली रचना पसन्द करते हैं और कुछ छोटे-छोटे समासवाली रचनाको अच्छा समझते हैं । इसीलिए रीतिमें भेद हुआ है । रसके अनुकूल शब्द योजनाकी दृष्टिने भी रीतिको जन्म दिया है । इस तरह गौडी, पाञ्चाली, लाटी और वैदर्भीके भेदसे चार प्रकारकी रीतियाँ साहित्य क्षेत्र में मानी जाती हैं । जीवन्धर चम्पू और उसके रचयिता महाकवि हरिचन्द्र--- जीवन्धर चम्पूके विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है । अतः यहाँ पुनरुक्ति करना अन्याय्य होगा । इसके रचयिता महाकवि हरिचन्द्र हैं । यद्यपि कुछ लोगोंका ध्यान है
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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