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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य भवन सुशोभित थे और उनके आगे मार्गमें धूपसे सुशोभित सुवर्णकलश शोभा पा रहे थे॥४३॥ उस सभाके ऊपरका आकाश धूपघटोंसे निकलने वाली जिन धूमकी रेखाओंसे व्याप्त हो रहा था वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो जिनेन्द्र भगवान्के दर्शनके द्वारा, एकत्रित भव्य जीवोंके समूहसे उनकी पापकी परम्पराएँ ही निकलकर भाग रही थीं। दिशारूपी स्त्रियोंके कर्णपूरके समान दिखनेवाले श्रेष्ठ पल्लवोंसे सुशोभित एवं इन्द्रके उद्यानको जीतनेके लिए ऊपर उठाये हुए हाथोंकी समानता प्राप्त करनेवाले गगनचुम्बी चार चैत्यवृक्षोंसे सुशोभित तथा अनेक प्रकारके धारागृहों, निकुञ्जों और सुवर्णमय क्रीडापर्वतोंसे सुशोभित चार वन उस सभाकी शोभा बढ़ा रहे थे । जिसके तोरण नाना प्रकार के मणियोंके समूहसे खचित थे। ऐसी सुवर्णमय वेदिकासे वह सभा अलंकृत थी। मयूर, हाथी, सिंह आदि मुख्य-मुख्य चिह्नोंसे चिह्नित तथा आकाशतलमें फहरानेसे खिंची हुई आकाश-गङ्गाकी तरङ्गोंकी संभावना बढ़ाने वाली, संलग्न मोतियोंकी कान्तिकी परम्परासे सुन्दर पताकाओंसे वह सभा सुशोभित थी। आगे चलकर उस सुवर्णमय कोटसे सुशोभित थी जो कि भगवानके मुखारविन्दसे निकली हुई दिव्य ध्वनिको सुननेके कौतूहलसे कुण्डलका आकार बनाकर उपस्थित हुआ मानो मेरु पर्वत ही था । वह सभा सबका मन हरनेवाले फूलोंसे लदे कल्पवृक्षोंके वनसे सुशोभित थी। समस्त जगत्को आनन्दका समूह प्रदान करनेवाली एवं चार गोपुरांसे समुद्भासित वज्रमय वेदिकासे युक्त थी। जिनेन्द्र भगवान्के दर्शनके कौतूहलसे प्रकट हुए नव पदार्थों के समान दिखनेवाले, प्रतिमाओंसे युक्त नौ नौ स्तूपोंको धारण कर रही थी। भगवान्के दर्शनकी इच्छासे आये हुए मूर्तिधारी आकाशके समान सुशोभित स्फटिकके कोटसे अलंकृत थी और निरन्तर चमकनेवाले चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्मित एवं भव्य जीवोंके समूहसे अधिष्ठित बाहर सभाओंसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी। वहाँ प्रवेशकर उन्होंने गन्धकुटीसभा नामक स्थानमें मणियोंसे प्रकाशित सिंहासनके अग्रभागपर उदयाचलपर सूर्यके समान विराजमान वीर जिनेन्द्रके कौतुकके साथ दर्शन किये ॥४४॥ विधि-विधान को जाननेवाले राजा जीवन्धरने प्रदक्षिणा देकर जगत्पूज्य भगवान् महावीर स्वामी की भक्तिपूर्वक पूजा की और तदनन्तर पूजाकी विधिसे संतुष्ट चित्त होकर निम्न प्रकार उनकी स्तुति की ॥४५॥ हे स्वामिन् ! जिसने गगनचुम्बी शाखाओंके द्वारा आकाश और दिशाओंके अन्तरको रोक रखा है, जो भ्रमरोंके शब्दके बहाने आपके निर्मल गुणोंका गान कर रहा है और जो आपके दर्शनसे अनुरक्त हो चञ्चल पल्लवोंके द्वारा नृत्य कर रहा है ऐसा यह आपका अशोक वृक्ष अनेक प्रकारके फूलों और पल्लवोंके समूहसे ऐसा जान पड़ता है मानो मूर्तिधारी वसन्त ही हो ॥४६॥ हे जिनराज ! हे सम्पूर्ण एवं स्पष्ट ज्ञानके सागर ! आपकी वह अत्यन्त सफेद पुष्पोंकी वर्षा, आपका दर्शन करनेके लिए आकाश-मार्गसे आई हुई चाँदनी है क्या ? अथवा आपके भयसे कामदेवके हाथसे छूटी हुई उसकी बाणों की परम्परा है क्या ? ॥४७॥ हे जिनेन्द्र, हे स्वामिन् ! जनासे युक्त, एवं मेघध्वनिके समूहका अनुकरण करनेवाला आपका यह दुन्दुभि समस्त मिथ्यामतियोंको बुलाकर कह रहा है कि अरे रे कुंतीर्थी ! अपनी बुद्धिसे विचारकर तुम्ही लोग कहो कि कहाँ तो यह अपार लक्ष्मी और कहाँ यह निश्चल निःस्पृहता ?-कहाँ यह समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला स्पष्ट ज्ञान और कहाँ यह अहंकारका अभाव ? नम्रता ॥४८॥ __ हे समस्त जगत्के स्वामी ! हे समस्त पदार्थों के जानने में चतुर ! हे सुमेरु पर्वतके समान धीर ! हे वीर जिनेन्द्र ! आपका यह छत्रत्रय ऐसा जान पड़ता है मानो तीनों लोकोंके ऐश्वर्य की महिमाको प्रकट करनेवाला, एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमानको विषय करनेवाला, आपका ज्ञानत्रय ही हो । अथवा अपना प्रभुत्व प्रकट करनेके लिये देवोंके द्वारा चक्राकारकर आकाशमें गम्भी
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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