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________________ एकादश लम्भ तत्पश्चात् राजा जीवन्धरने राज्यका पालन करनेके लिए युवराज नन्दाढ्यको आज्ञा दी परन्तु उसने तपका राज्य प्राप्त करनेकी ही इच्छा प्रकट की । अन्तमें विवश होकर उन्होंने मङ्गलमय मुहूर्तमें जिनेन्द्र भगवान्को पूजाकर राज्य-वितरणका उत्सव किया और जिसकी भुजाएँ, प्रसिद्ध पराक्रम रूपी लक्ष्मीके क्रीडा-भवनके समान आचरण करती थीं, जो समस्त कलाओंका भाण्डार था, जो धनुप-विद्यामें निपुण था और कीर्ति, प्रताप, विभव तथा सौन्दर्य रूप सम्पत्तिके द्वारा उन्हींका अनुकरण कर रहा था ऐसे गन्धर्वदत्ताके सत्यन्धर नामक पुत्रका राज्याभिषेककर उन्होंने उसे इस प्रकार उपदेश दिया। हे पूर्ण चन्द्रके समान मुखवाले पुत्र ! तेरी जिह्वाके अग्रभागपर असत्य वाणी, कानोंके समीपमें कुटिलतासे भरे नीच मनुष्योंके वचन, नेत्रोंके मार्गमें परस्त्रीका रूप, मनमें कुमार्ग विपयक उद्योग और मुखमें क्रोधका आवेश वास न करे ॥३६॥ हे पुत्र ! तू मनमें जिनेन्द्र भगवान्के चरण, कानोंमें धर्मरूपी अमृत और प्रजासमूहके हितमें अपने नेत्रोंको वृत्ति सदा धारण करना । इसी तरह तू सुखसे पृथिवीका पालन कर सकेगा ॥४॥ इस तरह अपने पुत्र सत्यन्धरको समझाकर तथा अन्य पुत्रोंको भी यथायोग्य पदों पर प्रतिष्ठितकर श्री महावीर भगवान्के चरणकमलोंकी भक्ति और वैराग्यसे प्रेरित हुए राजा जीवन्धर भगवान् महावीरकी समवसरण सभाके निकट पहुँचे । जाते समय मार्गमें उनका पार्श्वभाग समस्त मित्रों के समूहसे घिरा हुआ था, संतोषसे भरी आठों स्त्रियोंसे उनका समीपवर्ती प्रदेश व्याप्त था, तथा सत्यन्धर आदि पुत्र जिसके आगे-आगे चल रहे थे, जो वेलाका उल्लङ्घनकर बहनेवाले समुद्रके जलकी नदीके समान जान पड़ती थीं, निर्दयतापूर्वक ताड़ित भेरी आदि बाजोंकी विशिष्ट प्रतिध्वनिसे जिसने कुलाचलोंकी कन्दराएँ प्रतिध्वनित कर दी थीं ऐसी पीछे दौड़नेवाली मनोहर सेना उन्हें बिदाई देनेके लिए आई थी। उस सेनाने प्रणाम पूर्वक उन्हें यथाक्रमसे बिदाई थी। समवसरणके समीप जाकर उन्होंने तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और फिर प्रसन्नचित्त हो बहुत भारी आश्चर्यसे नेत्रोंको विस्तृतकर भीतर प्रवेश किया। समवसरण सभाके पास ही रत्नोंकी धूलिसे निर्मित, इन्द्र धनुषका अनुकरण करने वाला धूलिसाल नामका कोट था जो कि ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र देवको वरनेके लिए मुक्ति रूपी लक्ष्मीके द्वारा पासमें फेका हुआ कङ्कण ही था ॥४१।। उस समवसरण सभामें गगनतलको चुंबित करनेवाले एवं मन्द-मन्द वायुसे हिलनेवाली पताकाओंके अग्रभागसे सुशोभित चार मानस्तम्भ थे जो कि क्रोधादि चार कषायोंको नष्ट करनेके लिए सभाकी लक्ष्मीके द्वारा उठाई हुई चार तर्जनी नामक अंगुलियोंका कार्यभार धारण करते हुए-से जान पड़ते थे। ___ वह सभा रूपी लक्ष्मी सालकान्त-कोटसे सुन्दर (पक्षमें अलकोंके अन्त भागसे सहित) मुखको-अग्रभागको ( पक्षमें मुखको) धारण कर रही थी इसलिए वहाँ जो निर्मल सरसियाँ थीं वे लीला-दर्पणकी शोभा प्राप्त कर रही थीं ॥४२॥ वहाँ खिले हुए कमलोंके समूहसे सुशोभित और स्फटिकके समान स्वच्छ जलसे भरी हुई परिखा ऐसी जान पड़ती थी मानो ताराओंसे सहित आकाशकी लक्ष्मी ही हो अथवा महा महिमासे सुशोभित भगवान्के दर्शन करनेके लिए आई हुई स्वर्ग-लोकको मन्दाकिनी हो हो । वह परिखा भीतर छिपी हुई मछलियोंसे भी सुशोभित थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो उन मछलियोंको देवाङ्गनाओंने अपने नेत्रोंके विलाससे जीत लिया था इसलिए लज्जाके कारण ही मानो वे मछलियाँ उस परिखाके भीतर जा छिपी हों। उस सभामें अत्यन्त सुगन्धित फूलोंकी वाटिकाएँ थीं और उनके आगे जगमगाते हुए मणियोंसे व्याप्त कोट सुशोभित हो रहा था। चारों मुख्य दरवाजोंके बीचमें दोनों ओर नाट्य
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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