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________________ एकादश लम्भ ३३७ तीन भागों में रखा हुआ क्षीर सागरका जल ही हो । यह छत्रत्रय यद्यपि अत्यन्त स्वच्छ स्वभाव वाला है तो भी भव्य समूह को अनुराग - लालिमा ( पक्षमें प्रेम ) उत्पन्न करनेवाला है यह आचर्य की बात है । हे जिनपते ! दर्शनके लिए आये हुए सूर्यमण्डलकी शङ्का उत्पन्न करनेवाले एवं मणिमय दर्पण के समान आभा रखनेवाले आपके भामण्डलमें भव्य जीवोंका समूह स्पष्ट रूपसे अपने अतीत जन्मोंकी परम्पराको देखता है ||४६ || हे स्वामिन्! आपके चमरों की पंक्ति ऐसी सुशोभित होती है मानो चन्द्रमाके समान आपके विद्यमान रहने पर चन्द्रमा की किरणें व्यर्थ हैं इसलिये विधाताने उन्हें दण्डमें बाँधकर अलग रख छोड़ा हो। और उन्हीं की यह पंक्ति हो ||५०॥ हिरण गरदन उठा उठाकर जिसे निरन्तर सुनते हैं और जिसने अमृत की धाराको जीत लिया है ऐसी आपकी दिव्य ध्वनि अत्यन्त सुशोभित हो रही है ॥ ५१ ॥ निरन्तर नमस्कार करनेवाले देवसमूहके मुकुटतटमें लगे मोतियों की कान्तिसे पुनरुक्त नखरूपी चाँदनीके द्वारा समस्त मनुष्यों के नेत्ररूपी नील कमलोंको आनन्दित करनेवाले हे वीर जिनेन्द्र ! आपका सिंहासन उपवनके समान है क्योंकि जिस प्रकार उपवन अनेक पत्र और लताओंसे सहित तथा मुँह खोले सिंहांसे युक्त होता है उसी प्रकार यह सिंहासन भी नाना प्रकार के पत्तों और वेलबूटोंसे सहित तथा मुँह खोले कृत्रिम सिंहोंसे युक्त है । अथवा समुद्रके जलके समान है क्योंकि जिस प्रकार समुद्रका जल रत्न तथा मकरोंसे सहित होता है उसी प्रकार यह सिंहासन भी रत्नमय मकरोंसे सहित है । अथवा सुमेरु के शिखर के समान है क्योंकि जिस प्रकार सुमेरुका शिखर अत्यन्त ऊँचा होता है, इस तरह अनेक उपमाओंको धारण करनेवाला आपका सिंहासन समस्त जगत्के आनन्दको बढ़ा रहा है । इस प्रकार आठ प्रातिहार्योंसे सेवित हे श्रीमन् ! वीर जिनेन्द्र ! 'संसाररूपी सागर में डूबे हुए मुझे निकालिये - मेरा उद्धार कीजिये' यह कहकर राजा जीवन्धरने भक्तिके अधिकता से देवाधिदेव भगवान् महावीर स्वामीको नमस्कार किया || ५२|| तदनन्तर जिनेन्द्रदेव की आज्ञा प्राप्तकर कुशल जीवन्धर स्वामीने मामा गोविन्द नरेश आदि राजाओंके साथ गणधर को नमस्कार किया और जिनेन्द्र देवके द्वारा कहा हुआ निर्ग्रन्थ संयम ( निर्मन्थ दीक्षा ) धारणकर उन्हीं के समीप तप किया || ५३ || वह जीवन्धर स्वामी यद्यपि कुरूपशोभित थे - कुत्सित रूपसे सुशोभित थे तो भी सुरूप - सुन्दर रूपके धारक इस नाम से प्रसिद्ध थे । ( पक्ष में कुरूवंशमें उपशोभित होकर सुरूप नाम से प्रसिद्ध थे ) और मदन - काम होकर भी शिव - महादेवजी को सुख उत्पन्न करनेमें आदरसे युक्त थे ( पक्ष में कामदेव पदवीके धारक होकर भी शिव - मोक्ष सम्वन्धी सुखमें आदर धारण करनेवाले थे ) ॥ ५४ ॥ यह रहने दो इसके सिवाय और भी आश्चर्यजनक बातें उनमें दिखाई देती थीं । जो पहले सुन्दर लोचनोंके धारक स्त्रियोंके द्वारा संगी यह कहकर प्रशंसित हुए थे ( पक्ष में संगीति- उत्तम गानके द्वारा प्रशंसित हुए थे ) वही अब सुहग्ज नोंमें विद्वज्जनोंमें असंगी निष्परिग्रह इस तरहकी प्रसिद्धिको प्राप्त हुए थे ॥५५॥ गन्धर्व दत्ता आदि देवियों ने भी अपनी-अपनी माताओंके साथ चन्दना नामक आर्याके पास उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया || ५६ ॥ तपमें प्रवीण, धीर वीर, एवं माननीय गुणों से सुन्दर महामुनि जीवन्धर स्वामीने यथाक्रम से अत्यन्त मजबूत आठ कर्मोंको नष्ट पूर्ण रत्नत्रय प्राप्त किया || ५७|| इस प्रकार जो अपने आठ गुणोंसे पुष्टिको प्राप्त हुए थे, और हरिचन्द्र कविने अपने मधुर वचन रूपी पुष्पोंके समूहसे भक्तिवश जिनके दोनों चरणकमलों की पूजा की थी वे जीवन्धर स्वामी सिद्ध होकर लोकोत्तर प्रभासे युक्त, अनुपम तथा अविनाशी सुखकी परम्परासे सुशोभित मुक्तिरूपी लक्ष्मीको प्राप्त हुए || ५८ || महाकवि हरिचन्द्र ग्रन्थके अन्तमें मंगल कामना करते हुए कहते हैं कि राजा प्रतिदिन प्रजाका कल्याण ४३ 7
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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