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________________ दशम लम्भ ३२३ करनेवाले कोङ्कणदेशके राजाने बहुत ही शीघ्र नपुलके ऊपर बाणोंकी वर्षा करना शुरू कर दी ।। ६६ ।। तदनन्तर पश्चिम दिशामें गये हुए सूर्यके समान जिसका प्रताप अत्यन्त क्षीण हो गया था ऐसे मूच्छित नपुल वीरको उसका सारथि रणभूमिरूपी आकाशसे बाहर ले गया ॥१७॥ इधर जीवन्धर कुमारने जब यह समाचार सुना तो वे शोकसे कातर हो गये और क्रोधसे उनका मुख लाल हो गया । अपने दामादकी यह दशा देख, जिसने अपनी प्रसिद्ध सेनाके कोलाहलसे समस्त लोकको व्याप्त कर दिया था और जो बहुत भारी पराक्रमका धारक था ऐसा गरुड़वेग नामका विद्याधरों का राजा क्रम-क्रमसे युद्धकी सीमामें प्रविष्ट हुआ । ___ रणाग्र भागमें आते-आते ही क्रोधसे जिसका मुख भयंकर हो रहा था, जो शक्ति, तोमर, शूल, जाल, परिघ, कुन्त, असि और पर्वतों की वर्षा कर रहा था, गर्वपूर्ण भयंकर अट्टहाससे जिसने समस्त दिशाओं में हलचल मचा दी थी, एवं युद्धकी कलासे जिसकी भुजाओं का अहंकार उन्नत हो रहा था ऐसा विद्याधरों का राजा गरुड़वेग आकाशकी सीमामें क्रीड़ा करने लगा ॥ ६८ ॥ वहाँ गरुड़वेगको देखकर शत्रओंमें से कितने ही योद्धा खून उंगलने लगे, कितने ही प्राण छोड़ने लगे, कितने ही भयसे पृथिवीपर जा पड़े और भागनेकी इच्छा रखनेवाले कितने ही राजा लोग दिशा-भ्रान्ति होनेके कारण युद्धकी सीमा ही मानो अधिक अभ्यास करने लगे ।। ६६ ॥ रे रे नीच कोङ्कण पति ! कहाँ भाग रहा है, युद्धमें कम्पनको प्राप्त मत हो, आगे खड़ा रह, यमराज तुझे खानेकी चेष्टा कर रहा है, राजा गरुड़वेग तेरा शिर गिराकर कानोंसे बहते हुए खूनके प्रवाहोंसे अभी-अभी भूतोंकी तृप्ति करता है-उन्हें तेरा खून पिलाकर सन्तुष्ट करता है । १००इस प्रकार सिंहके समान पराक्रमी और शत्रुओंके कण्ठरूपी कदलीवृक्षोंपर तलवार चलानेवाले विद्याधर सैनिक जोर-जोरसे गर्जना कर रहे थे । १०१ ।।। उस समय फूले हुए पलाश वनके समान, नये-नये पत्तोंसे युक्त अशोक वनके समान अथवा फूले हुए मन्दार वृक्षोंके वनके समान सब ओर घायल हुए अपनी सेनाको देखकर कोङ्कण देश के राजाने पुनः गरुड़वेगका सामना किया और कर्णफूलकी सुगन्धिसे आकर्षित हुई भृङ्गावलीकी शङ्का करनेवाली डोरीसे निकलनेवाले बाणोंको धारासे आकाशतलको भरने लगा परन्तु बहुत भारी वेगको धारण करनेवाले गरुड़वेगने एक क्षणमें ही उसके वक्षःस्थलपर शक्ति नामक शस्त्रका प्रहार कर दिया। विद्याधरोंके राजाने जिनके शरीर विदीर्ण किये हैं ऐसे योद्धा लोग आज मेरे मण्डलको भेद देंगे इस भयसे ही मानो सूर्य उस समय वेगसे अस्ताचलकी ऊँची गुफामें जा घुसा था अर्थात् अस्त हो गया था ।।१०२।।। तदनन्तर गरुड़वेगके द्वारा उठा-उठाकर फेंके हुए गण्डशैलों-छोटे-छोटे पर्वतोंके द्वारा जिनके शरीर खण्डित हो गये हैं ऐसे मरनेसे बाकी बचे हुए सैनिकोंके साथ जब काष्ठाङ्गारका सेनापति अपने शिविर में चला गया तब युद्ध देखनेके लिए सामने आये हुए देवोंके हाथोंसे बरसाये गये कल्पवृक्षके फूलसे सुगन्धित भुजदण्डमें जिसने धनुष ले रक्खा था, परस्परके हर्षपूर्ण वार्तालापसे जिनका कौतूहल बढ़ रहा था और युद्धकलामें विलासपूर्ण विजयका स्मरण कर-कर जो अपने स्वामीकी प्रशंसा करनेमें तत्पर थे ऐसे सैनिक लोग जिसे प्रत्येक क्षण देख रहे थे, जो पल्लवनरेश, गोविन्दराज तथा लोकपाल आदिके साथ वार्तालाप कर रहा था, ऐसा राजा गरुड़वेग भी अपनी शिविरभूमिमें जा पहुँचा । वहाँ ग्रहणसे उन्मुक्त चन्द्रमाके समान मूर्छासे उन्मुक्त नपुलने इसकी अगवानी की। दूसरे दिन काष्ठाङ्गारने सेनापतियोंके लिए मणिमाला, मुकुट, बाजूबन्द, वस्त्र, रथ, सारथी, घोड़े तथा कवच आदि देकर स्वयं ही शीघ्रता पूर्वक प्रयाण किया ।।१०३॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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