SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ जीवन्धरचम्पूकाव्य विशेषज्ञोंके लिए भी भय उत्पन्न करनेवाला था ।। ८६ ।। कुछ ही समय बाद गोविन्दराजने युद्धभूमिमें अपने बाणसे महाराष्ट्रनरेशका मस्तक काट डाला। उसका कटा हुआ मस्तक जब आकाशमें उछटा तो सूर्यको राहुका भ्रम उत्पन्न करने लगा और गोविन्दराजकी कीर्तिरूपी स्तुति के लिए आकाशमें फहराई हुई पताकाका काम देने लगा ।। ६० ॥ इस प्रकार अपनी सेनामें बड़े-बड़े राजाओंकी मृत्यु सुनकर बहुत भारी क्रोध उत्पन्न हुआ था ऐसे काष्ठाङ्गारने पूर्ण प्रयत्नके साथ अपनी सेना आगेकर अपने तेजके वैभवसे सूर्यके प्रताप को जीतनेवाले एवं शत्रुजनोंके लिए यमराजकी समानता धारण करनेवाले राजा लोग, कौरवों की सेनामें क्षोभ उत्पन्न करनेके लिए भेजे। इधर जिस प्रकार सिंह हाथियोंके सामने आता है उसी प्रकार नन्दाव्य, क्रोधसे उन राजाओंके बल और उत्साहको बढ़ाता हुआ उनके सामने आया ।। ६१ ॥ तदनन्तर नन्दाढ्यने ऐसा युद्ध किया जो कि समस्त वीर जनोंकी प्रशंसाके योग्य था, जीवन्धरके छोटे भाईके अनुरूप था, पाण्डवोंके युद्धका उदाहरण था, नीति-मार्गके उचित था, देवोंके नेत्रोंको अतृप्तिकर था, अपने सैनिकोंको आनन्दित करनेवाला था, कुन्दके समान निर्मल कीर्ति की तरङ्गोंका कारण था, विजयलक्ष्मीके ताण्डव-नृत्यका अखाड़ा था, कल्पवृक्षकी बहुत भारी पुष्पवृष्टिका स्थान था और कवि लोगोंके वचनोंका अगोचर था। उस वीरके तीक्ष्ण और सघन बाणोंके द्वारा जब आकाश भर दिया गया तब युद्धको नहीं देखते हुए देव चुपचाप बैठे रहे और युद्धमें मरे हुए वीर सूर्यको न देखकर चिरकाल तक इधरउधर भटकते रहे ।। ६२॥ उसके बाणोंसे जिनके शरीर खण्डित हो गये थे ऐसे शत्रुसमूहके वीर-योद्धा ऊपरकी ओर स्वर्गमें गये थे और खूनकी बहती हुई नदियोंमें हाथियोंके जो टुकड़ पड़े थे वे उत्पन्न कमलके समान जान पड़ते थे ।। ६३ ॥ नन्दात्यने निपीड़ितकर जिन शत्रुवीरोंको उपेक्षा भावसे छोड़ दिया था वे ही विलक्षणता-लज्जाको प्राप्त हुए थे परन्तु देव और दानव भी जिसे नहीं देख सकते थे ऐसे उस महायुद्धके अग्रभागमें नन्दाय के द्वारा छोड़े हुए बाण विलक्ष्यता-लक्ष्यभ्रष्टताको प्राप्त नहीं होते थे—कभी निशाना नहीं चूकते थे ।। ६४॥ उस समय जो मन्दर गिरिके समान शत्रुओंको सेनारूपी सागरको क्षुभित कर रहा था, जिसके हाथकी शीघ्रकारिता आश्चर्यमें डालनेवाली थी, रणभूमिमें जिसका रथ किसी विरोधके बिना घूम रहा था, जो अनुपम सेनारूपी सम्पत्तिसे सहित होनेपर भी अद्वितीय था-अकेला था ( पक्षमें अनुपम था), दोषोंसे रहित होनेपर भी महादोष था-बहुत भारी दोषोंसे युक्त था (पक्षमें दीर्घ भुजावाला था ) अपरिमित हाथी और घोड़े आदि की सहायतासे युक्त होनेपर भी एक धनुष ही जिसका सहायक था, रथमें स्थित होकर भी जो धनुषके सहारे युद्ध करनेवाला था, जिसने यद्यपि शत्रुरूपी इन्धनको दूर हटा दिया था, फिर भी उसकी प्रतापरूपी अग्नि प्रज्वलित हो रही थी और जो लम्बे नेत्रों वाला होकर भी सूक्ष्म नेत्रोंवाला था, पक्षमें बारीकीसे पदार्थका विस्तार करनेवाला था, ऐसा नन्दाव्य यद्यपि एक ही था तो भी उसे दो रूपमें, तीन रूपमें, चार रूपमें देखकर बहुतसे राजा उसी क्षण ईर्ष्यासे ही मानो स्वयं मृत्युको प्राप्त हो गये। उस समय नपुल और विपुल नामके दो योद्धा जब धनुषरूपी लताको खींचकर बाणों की बहुत भारी वर्षा कर रहे थे तब आश्चर्य था कि आकाश, खग-मण्डल अर्थात् बाणोंके समूहसे युक्त होकर भी आच्छादित है-उदित होता हुआ खग-मण्डल अर्थात् बाणोंका समूह (पक्षमें सूर्यमण्डल ) जिसमें ऐसा हो गया था॥६५॥ उतनेमें ही जिस प्रकार प्रलय कालके समय उठा हुआ निर्मर्याद भयंकर गर्जना करनेवाला मेघ पर्वतके शिखरपर बहुत वज्रोंकी वर्षा करता है उसी प्रकार दौड़ते हुए रथसे आगत, क्रोधसे अन्धे एवं बहुत भारी गजना
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy