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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य इस प्रकार पारितोषिक देनेसे जिसका उत्साह बढ़ाया गया था तथा जो 'मैं पहले चलें, मैं पहले चलूँ,' इस तरह शीघ्रता करनेके लिए विवश थी ऐसी सब ओर चलनेवाली सेनाने जिसके समीपवर्ती पृथ्वीके मैदानको आच्छादित कर लिया था, जो पर्वतके समान विजयगिरि नामके मदस्रावी हाथीपर सवार था, आगे होनेवाले चक्रपातके सूत्रन्यासकी रेखाओंकी शङ्का उत्पन्न करनेमें निपुण तीन रेखाओंसे सुशोभित कण्ठमें चारों ओरसे लटकनेवाले एवं चक्रपातकी प्रतीक्षामें कण्ठपर बैठे हुए यमराजके हाथसे प्रदत्त पाशके समान दिखनेवाले मोतियोंके हारसे जिसका वक्षःस्थल शोभायमान था, मुकुटमें लगे हुए मणियोंमें सूर्यमण्डलका प्रतिबिम्ब पड़नेसे जो ऐसा जान पड़ता था कि जीवन्धर स्वामीके बाणोंसे आकाशके आच्छादित होने पर यह मेरे पास नहीं आ सकेगा इस भावनासे दयाकी खान सूर्यने पहलेसे ही मानो उसका मस्तक ले लिया हो, तथा जिसका मुख टेढ़ी भौंहोंसे युक्त था ऐसा काष्ठाङ्गार स्वयं ही रणाङ्गणमें आया। - इधर सेनाके बहुत भारी कोलाहलसे जिन्होंने दिग्पालोंके भवनोंके झरोखे व्याप्त कर दिये थे तथा जिनके भुजदण्डकी महिमा पृथिवीतलपर प्रसिद्ध थी ऐसे जीवन्धर स्वामी भी अशनिवेग नामक मदस्रावी गजपर सवार हो क्रम-क्रमसे रणाग्रभागमें पहुँचे ॥ १०४ । उस समय कर्णपुटको जड़ करनेवाला देवोंकी विजयदुन्दुभियोंका शब्द जब बार-बार सुमेरु पर्वतकी गुफाओंमें प्रवेश करता था तब प्रतिध्वनिसे पूर्ण गुफाओंके शब्दोंसे देवियोंका हर्पसे भरा संगीतविषयक कौशल निष्फल हो जाता था ॥१०॥ उस समय रथोंसे खुदी पृथिवी तलसे उड़कर सामने आनेवाली धूलिको, दिग्गज अपनी सँड़ोंसे निकलनेवाले जलकणोंसे शान्त करते थे और विजया पर्वतकी एकान्त गुफाओंमें वस्त्ररहित स्त्रियोंके शरीरपर पड़नेवाली धूलिको विद्याधर लोग वस्त्रसे दूर करते थे ॥१०६॥ ___उस समय उन दोंनोके बीच क्षणभरमें ऐसा युद्ध होने लगा जिसे देवोंने भी पहले कभी नहीं देखा था, जो मदसे भरा था, वीरोंकी दर्पपूर्ण उक्तियोंसे उत्कृष्ट था, चञ्चल तलवारों में प्रतिबिम्बित सूर्यकी क्रान्तिसे जिसका देखना कठिन था, अनुपम था और विजयलक्ष्मीका मानो तुलारोहण था ॥१०५॥ वीरता रूपी लक्ष्मीके प्रथम संचारके मार्ग स्वरूप जीवन्धर स्वामी जब अपने हाथोंमें नाचती हुई धनुषरूपी लतापर चढ़ा-चढ़ाकर वाणोंको छोड़ते थे तब विदीर्ण होनेवाले क्षत्रिय योद्धाओंके समूहसे जिसका अन्तस्तल सब ओरसे भिद गया था ऐसा सूर्यमण्डल आकाशमें स्थित मधुमक्खियोंके छत्तके समान जान पड़ने लगा था ॥१०८।। उस समय युद्धमें हर्षसे भरे देव लोग जीवन्धर स्वामीके ऊपर सुगन्धित फूलोंका समूह बरसा रहे थे और चतुर जीवन्धर स्वामी मदोन्मत्त हाथियोंके विदीर्ण हुए दोनों गण्डस्थलोंसे ऊपरकी ओर उचटने वाले उन मोतियांसे जो कि बाणोंपर निवास करनेवाली विजयलक्ष्मीके निकलनेवाले हर्षाश्रुओं की बूंदोंके समान जान पड़ते थे उनकी प्रतिपूजा-बदलेका सत्कार कर रहे थे ।।१०६।। इस प्रकार पीछे-पीछे दौड़नेवाली वीरलक्ष्मीके द्वारा जिनका शरीर आलिङ्गित था ऐसे जीवन्धर स्वामी सेनाको विदीर्ण करते हुए काष्ठाङ्गारके सम्मुख गये ।।११०॥ इस तरह जिनकी दोनों भुजाएँ विजयलक्ष्मीके ताण्डव-नृत्यकी रङ्गभूमिके समान थीं ऐसे जीवन्धर कुमारको देखकर काष्टाङ्गार इस प्रकार बोला। तू अत्यन्त डरपोक वैश्यका लड़का कहाँ और धनुषशास्त्रके पारगामी हम कहाँ ? फिर भी तेरी युद्ध में जो प्रवृत्ति हो रही है उसमें अपनी अनात्मज्ञता ही कारण समझा ।।१११।। अरे बनिये ! तराजूकी डाँड़ी थामनेमें जो तेरे हाथकी चतुराई थी उसे तू धनुषके पकड़नेमें फैलाना चाहता है ! तेरी इस चञ्चलताको धिक्कार है ॥११२॥ अरे मूर्ख ! तू साहसके साथ रणमें खड़ा है सो मरना ही चाहता है। मेरे खड्गरूप साँपके बिना तेरे प्राण रूपी वायुका और कौन पान करेगा ? ॥११३।।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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