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________________ दशम लम्भ ३२१ था ॥ ८२ ॥ उस समय पद्मास्य, जो राजा नम्र हो जाते थे उनके साथ सुजनताका व्यवहार करता था और जो उद्दण्ड होकर शत्रुता प्रकट करते थे उनके साथ युद्ध करता था । इस प्रकार वह विवेकके साथ बाण छोड़ता था । उधर क्षुद्रता शत्रुओंको नहीं छोड़ रही थी अर्थात् जिस प्रकारकी गम्भीरता पद्मास्यमें थी उस प्रकारको गम्भीरता शत्रु पक्ष में नहीं थी ||३|| वाणावलीरूपी रातको उत्पन्न करनेवाला मथन उस रणाङ्गणमें रात्रिके प्रारम्भके समान आचरण करता था और वाणरूपी किरणोंके द्वारा उसे भेदन करनेवाला पद्मास्य चन्द्रमाके समान आचरण करता था ॥ ८४ ॥ इस प्रकार जो परस्पर एक दूसरेके बाण काटनेमें लगे हुए थे, जिनके शरीर घावोंकी चर्चा से अनभिज्ञ थे, प्रशंसा करनेमें तत्पर देव लोग आश्चर्यसे आँख फाड़-फाड़कर जिन्हें निरन्तर देख रहे थे, दिशाओंके अन्त तक फैलनेवाली बाणोंकी वर्षासे जो आकाशको मानो मूर्तिक बना रहे थे, श्रेष्ठतम वीरको प्राप्त करनेकी इच्छासे बार-बार दोनोंके पास आने-जानेके क्लेशकी परवाह न कर आगे बढ़नेवाली विजयलक्ष्मी के द्वारा जिनके शरीरोंका आलिङ्गन किया जा रहा था, साहसके देखनेके समय देवोंके द्वारा बरसाये हुए कल्पवृक्ष के फूलोंसे जिनकी दोनों भुजाएँ सुगन्धित थीं, और चक्राकार धनुषों के बीच में शरीर के सुशोभित होनेसे जो मण्डलके बीच में स्थित एक दूसरे के सन्मुख. दो सूर्योके समान जान पड़ते थे ऐसे श्रेष्ठवीर पद्मास्य और मथन जब युद्धकी क्रीड़ा कर रहे थे तब मथनने कुपितमुख हो पद्मास्य के धनुषकी डोरी काट दी और हर्ष गर्जना करते हुए निम्नङ्कित शब्द स्वीकृत किये । अरे ! अभी तो धनुषका ही जीव ( डोरी ) छेदा है उसीसे भयभीत हो कहाँ भाग रहा है ! यह मथन अब तेरे भी जीवको ( प्राणको ) हरण करेगा - छेदेगा ।। ८५ ।। मथनके उक्त शब्द सुन गम्भीर शब्दवाले पद्मास्यने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा कि हे मथन ! धनुष न सही, मेरे पास शत्रुओं की सती स्त्रियोंके मुखरूपी चन्द्रमाके हास्यको नष्ट करनेवाला चन्द्रहास- तलवार तो है ||६|| इस प्रकार तलवार उठाकर जो उसे हाथमें घुमा रहा था, जिसका पराक्रम सिंहके समान था ऐसे पद्मास्यने रथके मध्यसे उछलकर बहुत भारी शीघ्रतासे शत्रुओंकी सेनापर आक्रमण कर दिया और देखते-देखते ही उसने युद्धके मिथ्या अभिमान से सुशोभित मथनके मस्तकपर तलवार उठाकर गाड़ दी । इस प्रकार जब रणके अग्रभागमें मथन पृथिवीपर आ पड़ा तब पद्मास्यके ऊपर पुष्प - वृष्टि होने लगी और कुपित राजाओंके समूहसे वाणवृष्टि होने लगी ॥ ८७ ॥ उस समय जीवन्धर कुमारकी सेनाका कोलाहल सुनकर जिनका क्रोध बढ़ रहा था, जिन्होंने धनुष टेढ़े कर लिये थे और जिनका प्रताप सूर्यके समान था ऐसे लाट-नरेश तथा काम्पिल्य नरेश क्रमशः बुद्धिषेण और पल्लव- नरेशके सम्मुख खड़े होकर भयंकर युद्ध करने लगे । उनके उस युद्धने वाणसे दिशाओंको भर दिया था, अपने स्वामीको हर्षित किया था तथा देव और विद्याधरोंको बहुत भारी आश्चर्य एवं हर्ष उत्पन्न किया था । इस प्रकार भयंकर युद्ध कर वे दोनों प्रलयाग्निकी तुलना करनेवाले बुद्धिषेग और पल्लव-नरेशकी बाणाग्निमें पतङ्ग हो अर्थात् पंखोंके समान जलकर मर गये । 1 उधर महाराष्ट्रनरेश तथा गोविन्दराजमें बाणोंके द्वारा हाथियोंको विदारनेवाला तथा जीतका कारणभूत भयंकर युद्ध बढ़ रहा था ॥ ८८ ॥ उस समय वे दोनों ही खिलाड़ी अनेक प्रकारका ऐसा भयंकर युद्ध कर रहे थे कि जो देदीप्यमान बाणोंसे व्याप्त था, जिसमें अहंकारी योद्धा अधिक मात्रामें विदीर्ण हो रहे थे, देव लोग जिसकी प्रशंसा करते थे, समस्त शस्त्रोंकी लीला जिसमें हो रही थी, जो दर्शकों के लिए उदाहरण स्वरूप था और जो युद्धविद्या प्रसिद्ध ४१
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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