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________________ २८६ जीवन्धरचम्पूकाव्य झुक गया था। जो कोकिलाएँ पहले मौनत्रत लिये हुएके समान चुप बैठी थीं वे अब जीवन्धर स्वामीकी गम्भीर एवं मधुर स्तुति के स्वरका अभ्यास करती हुईके समान मधुर स्वर प्रकट करने लगों । वहाँ जो सरोवर था वह तत्काल ही स्वच्छ जलसे ऐसा भर गया मानो स्फटिकके द्रवसे ही भर गया हो, अथवा जीवन्धर स्वामीके मुखरूपी चन्द्रमाकी कान्तिसे तट पर लगी हुई जो चन्द्रकान्तमणि द्रवीभूत हो रही थी उनसे भरनेवाली जलधारासे ही मानो भर गया हो, अथवा जीवन्धर स्वामी के द्वारा की हुई स्तुतिके सुननेसे सरोवरको जो स्वयं आनन्द उत्पन्न हुआ था उसके निष्यन्दसे ही मानो भर गया था । वहाँ जो विविध रङ्गोंके कमल थे वे शीघ्र ही फैलनेवाली सुगन्धिसे आकर्षित भ्रमरोंके समूहसे व्याप्त हो गये थे । इस तरह जीवन्धर स्वामीकी पुण्य रूपी कुञ्जीके द्वारा उस जिनालय के चिरकालसे बद्ध वज्रमय किवाड़ शीघ्र ही खुल गये । यह बगीचा भ्रमरोंके मधुर शब्दोंसे स्वागत गान गा रहा है, फूलोंसे झुकी वृक्षोंकी डालियोंसे शीघ्र ही नमस्कार कर रहा है और सरोवर के स्वच्छ जलसे पादोदक तथा अर्घ्य आदि प्रदान कर रहा है ? इस तरह जीवन्धर स्वामीको बार-बार शङ्का उत्पन्न हो रही थी ||२३|| जिना - के मध्य में विराजमान निर्मल शरीरके धारक श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र के दर्शन कर गुरुकुल शिरोमणि-जीवन्धर स्वामीका मन आन्तरङ्गिक भक्ति से सन्तुष्ट हो गया । उनके नेत्रोंने तत्काल ही पूर्णिमाके चन्द्रमासे द्रवीभूत चन्द्रकान्तमणिकी दशा प्राप्त कर ली और हाथोंके युगलने निमीलित कमलोंकी उपमा प्राप्त कर ली ||२४|| तदनन्तर कोई एक नागरिक पुरुष जीवन्धर स्वामी के समीप आया उस पुरुष के शरीर में रोमाञ्च उठ रहे थे और नेत्रोंसे हर्षजनित अश्रु बह रहे थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो रोमाञ्चके बहाने उसने मनोरथ रूप कल्पवृक्षका बीजवपन ही किया था और हर्षजनित श्र रूप जलके द्वारा मानो उसे सींच ही रहा था। विनय के भारसे जिसमें आधी सहायता दी गई थी ऐसे प्रणामसे वह अपने पापको दूर भगा रहा था । दयाकी खान जीवन्धर स्वामीने जब उससे पूछा कि तुम 'कौन हो ? तब संतुष्ट हृदय होकर उसने निम्नलिखित माङ्गलिक उत्तर देना शुरू किया । देखो, यह सामने एक बड़ी प्रसिद्ध नगरी सुशोभित हो रही है। यहाँ किसी सुन्दरी स्त्रीका मुखकमल जब पद्मराग मणिनिर्मित कुण्डलोंकी प्रभासे रक्तवर्ण हो जाता है तब उसे देख उसका पति समझने लगता है कि मानो इसे क्रोध आ गया है ||२५|| यद्यपि यह नगरी 'क्षेमपुरी' इस अभिख्या - नामको धारण करती है तो भी मणिमय महत्त्वोंसे इन्द्रपुरी इस अभिख्या- नामको ( पक्ष में इन्द्रपुरी की शोभाको ) धारण करती है ||२६|| जिसका चित्तरूपी घर दयासे चित्रित रहता है और जिसका पादपीठ राजमुकुटोंकी पुष्पमालाओ सम्बन्धी धूलिके भारसे सदा पीतवर्ण रहता है ऐसा देवान्त नामका प्रसिद्ध राजा उस नगरी में रहता है ||२७|| इस राजा के शासनकाल में निर्दोष तथा गोलाकार मोतियोंसे तन्मयता एवं भीतर छिद्रोंका होना तन्तुओं को स्थान देनेवाले हारोंमें ही था अन्य गुणी मनुष्योंमें सदाचारका अभाव तथा आन्तरङ्गिक दोष नहीं थे । चपलतावश अन्य नितम्बों के साथ समागमकी इच्छा केवल मेखला में ही थी अन्य मनुष्यों में पर-स्त्री के साथ समागमकी इच्छा नहीं थी। इसी प्रकार यदि चञ्चलता थी तो स्त्रियोंके कानों तक लम्बे नेत्रोंमें ही थी, अन्य पढ़े लिखे लोगों में चञ्चलता - क्षुद्रता नहीं थी ॥ २८ ॥ सुभद्रसेठ राजसेठ पदको प्राप्त था। उसकी स्त्रीका नाम निर्वृति था जो यथार्थ में निर्वृति - संतोष - सुखका ही स्थान थी ॥ २६ ॥ उन दोनोंके क्षेमश्री नाम से प्रसिद्ध एक ऐसी कन्या है जो कि सरस्वतीका निराकरण करनेवाली है और लक्ष्मीका मानो रूपान्तर ही है ||३०|| जो कान्तिकी श्र ेष्ठ सम्पत्ति है, विनयरूपी समुद्रको बढ़ानेवाली चाँदनी है, लज्जाका उत्पत्ति-स्थान है और कामदेवकी विजयपताका है ||३१|| विधाताने जब उसके मुखरूपी पूर्ण
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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