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________________ षष्ठ लभ २८७ चन्द्रमाको बनाया तो उसके प्रभावसे उनके आसनका कमल निमीलित हो गया और उसके कारण वे स्वयं संकीर्णतामें पड़ गये ॥३२॥ दाँतो की कान्ति जिसमें केशरको छटा दिखला रही है ऐसा उसका मुख जब निश्चित ही कमल है तब आपको उसका भ्रमर होना ही चाहिए ।।३३॥ इस जिनालयके वज्रमय किवाड़ खोलनेमें जिसके स्तुतिरूप वचनोंकी रचना कुञ्जीका काम देगी वही श्रेष्ठ पुरुष इसका पति होगा-इस प्रकार जन्मलग्नका फल निश्चय करनेमें चतुर ज्योतिषियोंकी बात सुनकर सुभद्र सेठ उस अवसरकी प्रतीक्षामें सदा सावधान रहता है । मेरा गुणभद्र नाम है और मुझे उसी सुभद्र सेठने भेजा है। आपके दर्शन कर मैं कृतकृत्यताका अनुभव कर रहा हूँ | इतना कहकर वह पुरुष सुभद्र सेठसे यह वृत्तान्त कहनेके लिए चला गया। तदनन्तर श्रेष्ठ पुण्य और गुणोंकी खानभूत जीवन्धर स्वामी सरोवरसे कुछ पुष्प ले भक्तिभारसे नम्रीभूत हो जिनमन्दिरके भीतर गये और वन्दना करने वालोंके लिए कल्पवृक्ष स्वरूप जिनेन्द्र देवकी स्वयं पूजा करने लगे ॥३४॥ उधर गुणभद्रने भी उत्तम महलके भीतर विद्यमान सुभद्र सेठके पास जाकर वचनरूपी अमृतके सिञ्चनसे उसकी चिन्तारूपी निद्राको शीघ्र ही दूर कर दिया ॥३५।। उसने कहा कि कोई एक ऐसा पुरुष रूपी चन्द्रमा जो कि कुवलय-पृथिवी मण्डल (पक्षमें नील कमल) को आनन्द देनेवाला है, संतोष रूपी समुद्रको बढ़ानेवाला है और स्तुति रूपी अमृतकी धारा वर्षाने वाला है, बाह्य उद्यान रूपी आकाशतलमें अवतीर्ण होकर सुशोभित हो रहा है। औरकी तो बात ही क्या, उद्यान भी उसके दर्शनसे सरोवरके जलके बहाने मानो आनन्दके आँसू धारण कर रहा है ॥३६।। मुझे तो ऐसा लगता है कि वह पुरुष न तो चन्द्रमा है, न कामदेव है और न इन्द्र ही है किन्तु वसन्त है । यदि ऐसा न होता तो चम्पाके वृक्षमें सुगन्धिको फैलाने वाला फूलोंका भार कहाँसे आ जाता ? ॥३७॥ । जिस प्रकार जब सूर्य पूर्व दिशाकी ओर आता है तब कमलवन अपने आप खुल जाता है-विकसित हो उठता है उसी प्रकार जब वह पुरुष स्तुतियोंका उच्चारण करता हुआ उपवनमें आया तब तत्काल ही जिनमन्दिरके किवाड़ खुल गये । जिसमें अमृतमयी तरङ्ग उठ रही है ऐसी गुणभद्रकी वाणी सुनकर सुभद्र सेठने उसे भारी पारितोषिक दिया। मानो गुणभद्रने मनोरथकी स्फूर्तिरूपी लताके जो अंकुर प्रदान किये थे सेठने उसका मूल्य ही चुकाया था॥३८॥ तदनन्तर सुभद्र सेठ अपने मित्रों के साथ अत्यन्त ऊँचे रथपर बैठकर नगर द्वारको लाँघता हुआ सामने विराजमान श्रीविमान नामक जिनालयमें पहुँचा । वहाँ जाकर उसने वन्दारजनोंक लिए कल्पवृक्ष स्वरूप श्रीशान्तिनाथ भगवान्की सेवामें जिनका चित्त लग रहा था तथा जो अनन्त पुण्यराशिके समान स्फटिक मणिकी लम्बी-चौड़ी शिलारूप आसनपर बैठे हुए थे ऐसे जीवन्धर स्वामीको देखा। टिमकार रहित नेत्रोंसे परमोत्कृष्ट लक्षणोंको देखने वाले सेठने इनके वैभवका निर्णय तत्काल ही कर लिया ॥३६॥ विनयसहित शान्तिनाथ भगवान्की पूजाकर बैठे हुए कान्तिमान् जीवन्धर स्वामीके पास जाकर सेठने बड़े हर्षसे स्वागत करते हुए कहा ॥४०॥ कि यतश्च आज आप हमारे नयनपथके पथिक हुए हैं-दृष्टिगत हुए हैं इसलिए आज हमने अपने नेत्रोंका फल पा लिया, यह दिन मेरे लिए बड़ा अच्छा दिन है, आज हमारे पूर्वपुरुषों द्वारा की हुई पुण्य रूपी लता फलीभूत हुई है और आज मेरा मनोरथ भी शीघ्र ही पूर्ण होने वाला है ॥४१॥ पद्मा-लक्ष्मी (पक्षमें पद्मों-कमलों) विषयक आप्तता और कुवलय-पृथिवी मण्डल (पक्ष में नील कमल) के उल्लासको विस्तृत करने वाले आप जैसे श्रेष्ठ राजा आज सामने प्रकाशमान हैं इसीलिए सूर्य भयाकलित वृत्ति-भयभीत (पक्षमें दीप्ति युक्त) हो गया है और चन्द्रमा दोषाकर दोषोंकी
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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