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________________ षष्ठ लम्भ २८५ आदिके द्वारा रोचित-होकर भी रोचित नहीं था ( पक्षमें मनुष्योंसे उचित था) तथा सबमें उत्तर होकर भी दक्षिण था (पक्षमें सर्वश्रेष्ठ होकर भी दक्षिण नामवाला था)। ऐसे दक्षिण देशमें जाकर उन्होंने क्षेमपुरके उपवनके मध्यमें सुशोभित भगवान्का एक ऐसा मन्दिर देखा जो कि मेघमण्डलके बीचमें सुशोभित सूर्यबिम्बके समान जान पड़ता था और अत्यन्त उन्नत प्रमाण वाला-सातिशय ऊँचा होकर भी विमान-प्रमाणसे रहित था ( विमान नाम धारी था)। नव रत्नखचित, गगनचुम्बी एवं सूर्यके समान देदीप्यमान अपने हजार शिखरोंसे वह मन्दिर ऐसा जान पड़ता था मानो पातालतलसे ऊपर उठता और फणाके रत्नोंसे सुशोभित होता शेषनाग ही हो ॥१४॥ उस मन्दिरके शिखरों पर लगी तारकावली और स्वर्ग लोकसे बरसी हुई पुष्पावलीमें यदि परस्पर भेद होता था तो चञ्चल, सुगन्धिके अनुगामी और झङ्काररूप मनोहर गान करनेवाले भ्रमरोंसे ही होता था ॥१५।। उस मन्दिर की पताका मन्द मन्द वायुसे हिल रही थी इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो फैलाई हुई भुजाके द्वारा बन्दना करनेके लिए सब ओरसे सुर और असुरोंके समूहको बुला ही रही हो ॥१६॥ इस प्रकार समस्त मनुष्योंके नेत्रों की तृप्तिको पूर्ण नहीं करने वाले उस जिनालयको बद्धकपाट देखकर भारी संतोष और विस्मयसे परवश हुए जीवन्धरने जिस प्रकार सूर्य सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता है उसी प्रकार उस जिनालयकी प्रदक्षिणा दी । तदनन्तर कार्यज्ञ मनुष्योंमें अग्रेसर जीवन्धर स्वामीने इस तरह स्तुति करना शुरू किया। हे भव्य जीवो! तुम सब उन शान्तिनाथ भगवान्का आश्रय ग्रहण करो जो कि संसारका भय दूर करनेवाले हैं, श्रेष्ठ आनन्दके अनुभवी हैं, निर्मल शरीरके धारण करनेवाले हैं, दिव्य ध्वनिका सही विचार करनेवाले हैं, कामके मदको विदीर्ण करनेवाले हैं, दयाके मनोहर प्रवाह हैं, जिनेन्द्रोंमें धीरवीर हैं तथा अत्यन्त गंभीर हैं ॥१७॥ जिनका अशोक वृक्ष शीतल छायावाला, आश्रित मनुष्योंके शोकको नष्ट करनेवाला, सार्थक नामका धारी एवं माहात्म्यको पुष्ट करनेवाला है और देव लोग जिनके चारो ओर फूले हुए अपरिमित फूलोंके समूहसे ठीक उस तरह वर्षा करते हैं जिस तरह कि फूलोंसे लदे कल्पवृक्ष सुमेरु पर्वतके समीप वर्षा करते हैं ॥१८॥ समस्त वचनके भेदोंका संग्रह करनेवाली जिनकी दिव्यध्वनि प्राणियोंके संसार-सम्बन्धी संतापको शीघ्र ही दूर करती है और देवोंके हाथों द्वारा कम्पित जिनके चँवरोंका समूह मुक्तिरूपी लक्ष्मीके कटाक्षोंका अनुकरण करता हुआ सुशोभित होता है ।।१६।। जिनका सिंहासन सुमेरु पर्वत के शिखरके साथ मानो इसलिए ईर्ष्या करता है कि वह धैर्यसे सबके स्वामी श्रीशान्तिनाथ भगवान् से द्वेष करता है। और भामण्डल सूर्यके साथ इस क्रोधसे ही मानो विरोध करता है कि यह मेरा पति है। इस तरह प्रसिद्धिको पा चुका है। भावार्थ-जब कि मैं रात दिन प्रकाशमान रहता हूँ और यह सूर्य सिर्फ दिन में ही प्रकाशमान रहता है फिर मेरा स्वामी कैसा ? इस क्रोध से ही मानो जिनका भामण्डल सूर्यके साथ द्वेष करता रहता है ॥२०॥ यह तीनों लोकोंकी गति है-शरण है इस भावको सूचित करता हुआ जिनकी दुन्दुभिका गम्भीर शब्द दशों दिशाओंको शब्दायमान करता है और जिनका छत्रत्रय ऐसा सुशोभित होता है मानो राग, द्वेष और मोह रूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए प्रकट हुए तीन चन्द्रमा ही हों ।।२१।। इस तरह जो अक्षय है, यक्षाधीश जिनके चरणोंमें नम्रीभूत हैं, और इन्द्र जिनकी लक्ष्मीको स्तुति किया करता है उन अतिशय समर्थ श्रीशान्तिनाथ भगवान्के लिए मेरा नमस्कार हो ॥२२॥ जब जीवन्धर स्वामी उक्त प्रकार की स्तुतिका जोर-जोरसे उच्चारण कर रहे थे तब जिनालयके अग्रभागमें सुशोभित गगनचुम्बी चम्पाका वृक्ष लाल-लाल पल्लवोंके बहाने मानो अपना अनुराग प्रकट कर रहा था और उसी क्षण उत्पन्न हुए मनोहर पुष्पोंके भारसे वह इतना झुक गया था मानो जीवन्धर स्वामीके शरीरकी कान्तिके देखनेसे उत्पन्न हुई लज्जाके भारसे ही
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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