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________________ प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ ३.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनस् कोकिलः स च कापालितो अवतीति लोकमसिद्धः 'वा' गज इति चा, गजो हस्ती 'गय कलभेइ वा' गजकलम:-गजशिशुरिति चा 'कण्डसप्पेइ वा' कृष्णसर्प इति वा 'कण्ह केसरेइ बा' कृष्ण केसर इवि दा, कृष्णकेसरो बकुलः, 'आगासधिग्गलेइ वा आकाशथिग्गलमिति वा आकाशदिग्गलं शरदि मेघविनिमुंक्तमाकाशखण्डं तहदति कृष्णम् 'कण्हासोयेति का' कृष्णाशोक इति वा 'किण्डकणवीरेह वा' कृष्णकणवीर इति बा, 'कण्हवंधुजीवेइ वा' कृष्णवन्धुनीव इति वा, एते अशोकादयो वृक्षभेदाः। भवे एयारूवे सिया' भवेत्तृणानां मणीनां कृष्णो वर्णः एतावद्रूषो जीमूतादिश्वरूपः किं स्यात् ? इत्येवमुक्ते श्रीगोतमे भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'गो इणटे सपढे' लायसर्थः समर्थः यदुक्तः कोमल काक होता है 'परपुढेइ था' जैसी काली कोयल होती है गए का जैसा काला हाथी होता है 'मय कलमेति वा जैसा काला हाथी का वच्चा होता है 'कण्हसप्पेह वा' जैसा काला कृष्ण लप होता है कण्ह केसरेइ वा जैसा काला कृष्ण केशर-बकुल होता है 'आमासथिग्गलेह वा' जैसा काला आकाशथिग्गल होता है शरदकाल में अघविनिर्मुक्त आकाश खण्ड होता है कहानीएति वा' जैसा काला कृष्ण अशोक होता है 'कण्ह क्षणवीरेइ वा' जैसी काली कृष्णकनेर होती है 'कणा बंधु जीवेइ वा जैसा काला बंधुजी होता है 'एयारवेनिया' तो क्या हे भदन्त ! वहाँ के तृणों का और मणियों का कृष्णवर्ण इन पूर्वोक्तजी मूतादि के जैसा ही होता है ? इस प्रकार से श्रीगौतमस्वामी के बीच में ही पूछने पर प्रभुश्री ने उनसे कहा 'गोयला' ! 'णो इणढे सनडे' 4 sal 14जी हाय हाय छे. 'गपइवा' हाथी २३ व भ महान अणे डाय छे. 'गयकलभेइवा' हाथीनु परयु । हाय छ, 'कण्हसप्पेइवा' वो लय ४२ वि४२॥ ४ स५ ।य छे. 'कण्हकेसरेइना' २ ४ 38२ ५४ डाय छे. 'आगासथिग्गलेइवा' रे णु यश थि हाय छ. अर्थात् श२६ सभा मेथी भुत थयेर मा म हाय छ, 'कण्ह सोएइवा' । । gory मा डाय छे. 'कण्हकणवीरेइवा' वी जी ४५ ४२। डाय छे. 'कण्ह बधुजीवेइवा' पु. अणु ५०१ डेय छे. 'एयारूवे सिया' 8 सपन् । त्यांना तृणे। मन मणियोनी आतिभा मा પહેલાં કહેલ મેઘ વિગેરેના જેવી હોય છે? આ રીતે શ્રીગૌતમસ્વામીએ पयमा प्रश्न ४२वाया तना उत्तर भापतi प्रभुश्री ४९ छे , 'गोयमा ! णे। इणद्वे समटे' मा अथ सशस२ नथी. अर्थात् २वी रीत मेघ विगैरेने ४
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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