SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 721
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६९७ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् 'आसकगाई सत्त' अश्वकर्मादीनां सप्उयोजनशतानि अवगाहनं लवणस मुद्रे । अयं भावः-अश्वमुखादीनां चतुर्णागश्वप्नु खहस्तिसुखसिंहमुख व्याघ्रमुखानां दीपानां परतो यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्यादि चरमान्तात् प्रत्येकं सप्तसप्तपोजनशतानि लवणसमुद्र मयाह्य सप्तयोजनायामविष्कम्भा. प्रयोदशाधिक द्वाविंशतियो. जनशतपरिश्या पदावरचेदिका वनषण्डमण्डितबाह्यप्रदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् सप्तयोजनशतममाणान्तरा अश्वकर्ण सिंहककर्णकर्णप्रावरण नामकाश्चत्वारो द्वीपा भवन्तीति ज्ञातव्याः, तथाहि-भामुख नाम द्वीप परतोऽश्वकर्णनामको द्वीपो भवति तथा-हस्तिमुखद्वीपस्य परतः सिंहकर्णनामको द्वीपो भवति, तथा-सिंहमुखद्वीपस्य परतोऽकर्ण नामको द्वीपो भवति, तथा-व्याघ्रमुख नामक द्वीपस्य परत: कर्णधावरण नामको द्वीपः, एते द्वीपाययोक्तायामविकास परिरयगुता भवन्तीति ।। ___ 'उकामुहाई णं अट्ठ' उरकामुखादीनाम्--उल्कामुख मेघमुख विद्युम्मुख विद्यु. दन्तनामकानां चतुर्णा द्वीपानामष्टयोजनशतानि अनगाहनं लरणसमुद्रे, अयं भाव:उत्तर पौररस्मादि घरमान्त के लक्षण समुद्र में सात साखौ योजन जाने पर आते है इनकी लम्बाई चौडाइ लात सात सौ योजन की है और परिधि का प्रमाण प्रत्येक को चाईस सौ तेरह-२२१३ योजन का है जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से इनका सात सौ योजन का अन्तर हैं । इस तरह अचानुव दीप से आगे अश्वकर्ण द्वीप है इस्तिमुख से ओगे सिंह कर्णद्वीप है, सिंहमुख से आगे अकर्णद्रीप है और घाघ्रमुख से आगे कण प्रापरण द्वीप है यही बाल 'आसकपणाई हस्त' इस नून पाठ द्वारा स्पष्ट की है ये सब अश्वकर्णादिक चारों द्वीप पदाबर वेदिकाओं और वनखण्डों से मंडित वाद्य प्रदेशो वाले है। 'वकामुराहणं अg' उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख और उत्तर સમુદ્રમાં સાત સાતસો રોજન દૂર જવાથી આવે છે. તેમની લંબાઈ પહોળાઈ સાત સાત જન છે અને દરેકની પરિધિનું પ્રમાણ બાવીસે તેર જનનું છે. જંબૂદ્વીપની વેદિકાને અંતથી તેમનું સાત જનનું અંતર છે. આ રીતે અશ્વમુખદ્વીપની આગળ અશ્વકર્ણદ્વીપ છે. અતિમુખની આગળ સિંહકર્ણદ્વીપ છે. સિંહમુખદ્વીપની આગળ અકર્ણદ્વીપ છે. અને બે ઘમુખની माग प्रायद्वीप छ. मेरी वात 'आरकण्णाईगं मन' मा सत्रा। દ્વારા સ્પષ્ટ કરેલ છે. આ અશ્વકર્ણાદિ ચારે ડીપ પાવર વેદિકાઓ અને વનડેથી શોભાયમાન બાહ્યપ્રદેશવાળા છે. 'उक्कामुहाईणं अट्ठ' GIमुम, मेवभुम, विधु-भुम गने त्त२ पौरस्त्यना सी० ८८
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy