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________________ ६६६ जोयाभिगमसूत्रे कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपचारो भवन्ति, देवलोकपरिग्रहाः खल से मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! ॥५० ४१॥ टीका- 'अस्थि णं मंते' इत्यादि । 'अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे णं दीवे' अस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे खलु द्वीपे ठिवाइ वा डिम्ब इति वा डिम्बः स्वदेशोत्थो विप्लवः 'डमराइ वा ' उमरः परराजकृत उपद्रव इति वा 'कलहाइ चा' कलह इति वा, कलहो वाग्युद्धम्, 'बोलाइ चा' वौल इति वा वोलो दहूनामार्त्तानाम् अव्यक्ताक्षररूपः कलकलध्वनिः 'खाराइ चा ' क्षार इति वा क्षारः परस्परं मारस 'वेराइ वा' वैरमिति वा वैरं परस्परमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः, 'विरुद्धरज्जाद वा' विरुद्धराज्यमिति दा भगवानाह - 'णो इणट्टे समट्टे' नायमर्थः समर्थः यतः 'चव डिंबडमरकलह बोलखारवेर विरुद्धरज्जा णं ते मणुयगणा षण्णत्ता समणाउसो !" व्यपतडिम्बडमरकलहबोळक्षार वैर विरुद्ध राज्याः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खल भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'महाजुद्वाइ चा महायुद्धमिति वा महायुद्धं 're णं भंते एगोरुय दीवे दीवे डिवाइवा डमराहवा' इत्यादि । टीकार्थ - हे भदन्त ! एकोरुक नाम के द्वीप में डिव-स्वदेश का विनाश - उमर - अन्य देश द्वारा किया गया आक्रमण 'कलहाइवा' वाणी की लढ़ाई झगड़ा क्लेश वोलाइवा' दुःखित जीवों का कलकलाट 'खाराइवा' परस्पर में वैर इर्ष्या भाव, 'वेराइया' परस्पर में हिंस्य हिंसक भाव 'विरुद्धरजाइवा' विरुद्ध विरोधी का आक्रमण राज्य ये सच वाते होती है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । 'णो उट्टे समट्टे' हे गौतम ये सब बाते वहाँ नहीं होती है क्योंकि 'ववगय डिंव डमर कलह बोल खार वेर, विरुद्ध रज्जाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! वहाँ के मनुष्य डिंब डमर कलह वैर आदि से स्वभावतः ટીકા ए 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दिवे डिंबाइवा, डमराइ वा' इत्यादि હૈ ભગવત્ એકેક નામના દ્વીપમાં ડિમ સ્વદેશના વિનાશ उभर अन्य देश द्वारा श्वासां भावेत भाम्भयु 'कलहाइवा' वालीनी लडाई 'अधडे देश 'बोलाइवा' दुःखी भवनो का 'खाराइवा' परस्परमां वैर- धर्ष्या लाव 'विरुद्धरज्जाईवा' विरुद्ध विराधिराभ्यनु आम आ तभाभ त्यां हाय छे? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वाभीने हे छे है 'णो इणट्टे समट्टे' हे गौतम! या तभाभ ममते। त्यां होती नथी. डेभ} 'ववगय डिंबडमर कलह बोल खारवेर विरुद्धरताणं ते मणुयगणा पण्णत्तो भ्रमणाउसो ।' हे श्रभव આયુષ્યમન ત્યાંના મનુષ્યા ડિ’ખ, ડમર, કલહ વૈર વિગેરેથી સ્વભાવથીજ રહિત
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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