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________________ 4C * जिनवाणो संग्रह * हुए दोषोंपर पश्चाताप) करना, ५ स्वाध्याय, और ६ कायोत्सग (ध्यान) करना ये छह आवश्यक हैं ॥२३॥ पंचाचार और तोन गुप्ति। दर्शन ज्ञान चारित्र तप, वीरज पंचाचार । गोपे मनवचकायको, गिन छत्तीस गुन सार ॥ अर्थ -१ दर्शनावार, २ ज्ञानाचार, ३ चारित्रावार, ४ तपा. चार, ५ वीर्याचार, १ मनोगुप्ति मनको वशमें करना, २ वचनगुप्ति वचनका वशमें करना, ३ कायगुप्ति शरीरको वशमें करना, इस प्रकार सब मिलाकर आचार्यके ३६ मूलगुण हैं ॥२४॥ उपाध्यायके २५ गुण । चौदह पूरबको धरे, ग्यारह अङ्ग सुजान । उपाध्याय पञ्चीस गुण, पढ़े पढ़ावें ज्ञान ॥२५॥ अर्थ-११ अङ्ग १४ पूर्वको आप पढ़े और अन्यको पढाव ये ही उपाध्यायके २५ गुण है ॥२५॥ ग्यारह अङ्ग। प्रथमहि आचारांग गुनि, दूजा सूत्र कृतांग । ठाण अङ्ग तीजो सुभग, चोथो समवायांग ॥२६॥ व्याख्या प्रति पवमो, झातृ कथा पट आन। पुनि उपासकाध्ययन है, अन्तःकृत दशठान ॥ अनुत्तरणउत्पाद दश, सूत्रविपाक पिछान । बहुरि प्रश्नव्याकरणजुत, ग्यारह अङ्ग प्रमान ॥ ___ अर्थ-१ आवारांग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग ४ समवायांग, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञातृकथांग, ७ उपासकाध्ययनांग, ८ अन्तः कृतदशांग, ६ अनुत्तरोत्पाददशांग, १० प्रश्नव्याकरणांग, ११ वि.
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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