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________________ ३५२ जिनवाणी संग्रह | भोन ० ० ॥ ३ ॥ एक इक बार दिशि चार शुभ बावरी । एक इक लाख जोजन अमल जलभरी ॥ बहु दिशा चार वन लाखजोजन वर ॥ भौन० ० ॥ ४ ॥ सोल वापीनमधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महा जोजन लखत ही सुख ॥ यावरीकोंन दो माहि दो रतिकर | भौन० ॥ ५ ॥ शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे । चार सोले मिले सर्व बावन लहे | एक इक सीसपर एक जिनमंदिर | भौन० ॥ ६ ॥ बिंव अट एकसौ रतनमई सोह ही । देवदेवी सरव नयनमन मोह ही ॥ पांचसे धनुष तन पद्मआसनपर । भौन ० ० ॥ ७ ॥ लाल नख मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं । स्यामरंग मोह सिर केश छबि देत हैं । वचन बोलत मनो हंसत कालुषहर ॥ भौन० ० ८ ॥ कोटशशि भानदुति तेज छिप जात है । महावैराग परिणाम ठहरात है । बयन नहिं कहें लखि होत सम्यकघर | भौन० ॥ ८ ॥ सोरठा - नदीवर जिनधाम, प्रतिमा महिमाको कहे ॥ 'द्यानत' लोनों नाम, यही भगति सब सुख करै ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रोन दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे दिपञ्जाशज्जिनालय स्थजिनप्रमिमाभ्य: पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा । (७१) निर्वाणक्षेत्रपूजा । परम पूज्य चौवीस, जिहँ जिह थानक शिव गये । सिद्ध भूमि निशदीस, मनवचतन पूजा करों ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र अवतरत अवतरत । संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत, ठः ठः अत्र मंम सन्निहितानि भवत । वषट् ।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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