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________________ २९६ जिनवाणी संग्रह। या संसार महावन भीतर भर्मत छोर न आवे । जन्मन मरन जरायों दाहे जीव महा दुःया पावे ॥३॥ कबहू कि जाय नर्क पद भुजे छेदन भेदन भारी । कबहूँ कि पशु पर्याय धरे तहां बध बन्धन भय कारी ॥ सुरगतिमें परि सम्मति देखे राम उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति मय सर्व सुखी नहीं कोई ॥ ४ ॥ कोई इष्टः वियोगी बिलखे कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिद्री दीखे कोई तनका रोगी ॥ किस ही घर कलिहारी नारी के बैरी सम भाई। फिस होके दुख बाहर दीखे किसही उर दुचिदाई ॥ ५ ॥ कोई पुत्र विना नित भूरे होय मरै तब रोये । खोटी सन्ततिसे दुख उपजे क्यों प्राणी सुख सोबै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनको भी नाहिं सदा सुख साता। यह जग बास यथारथ दीखे सबही हैं दुःख दाता ॥६॥ जो संसार विणे सुख होते तीर्थंकर क्यों त्यागे। काहेको शिव साधन करते संयमसे अनुरागे । देह अपावन अथिर घिनावनी इसमें सार न कोई । सागरके जलसे शुचि की तोभी शुद्धि न होई ॥ ७ ॥ सप्त कुधातु भरी मलमूत्र चम लपेटो सोहै । अन्तर देखत या सम जगमें और अपावनको हैं ॥ नव मल द्वार श्रबैं निश वासर नाम लिये घिन आवे। व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां कौन सुधी सुख पावे ॥८॥ पोषत तो दुख दोष करे अति सोचत सुख उपजावे। दुर्जन देह स्वभाव बराबर मूरख प्रीति बढ़ावे ॥ रावन योग्य स्वरूप न याको विरचन योग्य नहीं हैं। यह तन पाय महातप कीजै इसमें सार यही है ॥ ८ ॥ भोग बुरे भवरोग बढ़ावे बैरी हैं जग जीके। वे रस होय विपाक समय अति सेवत लागे नीके ॥ बज़ अग्नि विषसे विषधरसे हैं अधिक
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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