SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहमासा राजुल। २८० में भोग पडा है जोग करो मत सोग जाऊ गिरनारी। है मात पिता अरु भ्रातसे क्षमा हमारी॥ (झव)—मैं पुण्य प्रताप तुम्हारे । घर भोगे भोग अपारे। जो विधिके अङ्क हमारे । नहिं टरै किसीके टारे ॥ __(मड़ी)–मेरो सखो सहेली बीर न हो दिलगीर धरो वित धीर मैं क्षमा कराउ । मैं कुलको तुम्हारे कबहु न दाग लगाऊ। वह ले आज्ञा उठ खडी थी मङ्गल घड़ी बनमें जा पड़ी सुगुरुके चरना । निर्ने म नेम बिन० ॥ जेठ मास (मडी) अजी पड़े जेठकी धूप खड़े सब भूप वह कन्या रूप सती बड़ भागन । कर सिद्धनको प्रणाम किया जग त्यागन । अजि त्यागे सब संसार चूड़ियां तार कमण्डलु धार के लई पिछोटी। अरु पहर के साड़ी स्वेत उपाटी वोटी॥ (झर्वर्ट )-उन महाउप्र तप कीना। फिर अच्युतेन्द्र पद लीना । है धन्य उन्हींका जोना । नहिं विषयनमें वित दीना ॥ ___ (झड़ो)-अजी त्रिया वेद मिट गया पाप कट गया पुण्यचढ़ गया बढ़ा पुरुषारथ । करे धर्म अरथ फल भोग रुचे परमारथ, वो स्वर्ग सम्पदा भुक्ति जायगी मुक्ति जेनको उकिमें निश्चय धरना। निर्नेम नेम० ॥ जो पढ़े इसे नर नारि बढ़े परिवार सब संसारमें महिमा पावें। सुन सतियन शील कथान विन्न मिट जायें। नहि रहैं सुहागिन दुखी होय सब सुखी मिटे वेरुषी करें पति आदर । धे होय जगत् मैं महा सतियोंकी चादर ॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy