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________________ समाधिमरण । २६० दुखदाई । धर्म रत्नको बोर प्रबल अति दुर्गति पन्थ सहाई ॥१०॥ मोह उदय सह जीव अज्ञानी भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा सब सो सब कञ्चन माने | ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर मन बांछित जन पावे । तृष्णा नागिन त्यों त्यों के लहर लोभ विष लावे ॥ ११॥ मैं चक्रो पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे ॥ तो भी तनक भये ना पूरण भोग मनोरथ मेरे । राज समाज महा अघ कारण चैर बढ़ावन हारा। वेश्या सम लक्ष्मी अति चञ्चल इसका कौन पत्यारा ॥१२॥ मोह महा रिपु बैर विचारे जग जीव सङ्कट डारे । घर कारागर बनिता बेड़ों परजन है रखवारे । सम्य ग्दर्शन ज्ञान चरण तप ये जियको हितकारी। ये ही सार असार और सब यह चकी जिय धारी ॥ १३॥ छोड़े चौदह रत्न नबोनिधि और छोड़े सङ्ग साथी । कोड़ी अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लाख हाथी | इत्यादिक सम्पति बहु तेरी जीर्ण त्रणवत त्यागी । नीति विचार नियोगी सुतको राज्य दिया बड़ भागी ॥ १४ ॥ होइ निस्सल्य अनेक नृपति संग भूषण बसन उतारे । श्रीगुरु चरण धरी जिन मुद्रा पञ्च महाव्रत धारे ॥ धन्य यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम धन्य यह धैर्यधारी । ऐसी सम्पति छोड़ बसे बन तिन पद धोक हमारी ॥ १५ ॥ दोहा - परिग्रह पोट उतार सब, लीनो चारित्र पंथ । निज स्वभाव में स्थिर भये, बज्र नाभि निर्मन्थ ॥ (२७) समाधिमरण । ( कवि थानतराय कृत ) गौतम स्वामी बन्दो नामी मरण समाधि भला है । मैं कब
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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