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________________ जिनवाणी संग्रह | तृष्णाकी धूर वहां पानी दूर भटकना भूर कहां जल भरना । मिनेम नेम बिन हमें जगत क्या करना । कातिक मास (भड़ी ) सखि कार्तिक काल अनन्त श्रीअरहन्तकी सन्त महन्तने आशा पाली । घर योग यत्न भव भोगकी तृष्णा टाली । सजे चौदह गुण अस्थान स्वपर पहचान तजे रु मक्कान महल दिवाली | लगा उन्हें मिष्ट जिन धर्म अमावस काली ॥ २८४ (a) - उन केवल ज्ञान उपाया। जगका अन्धेर मिटाया । जिसमें सब विश्व समाया । तन धन सब अधिर बताया ॥ I ( झड़ी ) - है अधिर जगत सम्वन्ध अरी मतिमन्द जगत्का अन्ध है धुन्ध पसारा । मेरे प्रीतमने सत जानके जगत् बिसारा । मैं उनके चरणकी चेरी तू आज्ञा दे मा मेरी । है मुझे एक दिन मरना । निर्लेम नेम ० ॥ अगहन मास ( झड़ी ) सखि अगहन ऐसी घड़ी उदय में पड़ी मैं रह गई खड़ी दरस नहि पाये। मैंने सुकृत के दिन विरथा योंहो गँवाये । नहीं मिले हमारे पिया न जप तप किया न संयम लिया. अटक रही जगमें । पड़ी काल अनादिसे पापकी बेड़ी पगमें ॥ ( झर्व ) – मत भरियो मांग हमारी । मेरे शीलको लागे गारी । मत डारो अञ्जन प्यारी । मैं योगन तुम संसारी ॥ ( झड़ी ) - हुये कन्त हमारे जती मैं उनकी सती पलट गई रती तो धर्म नहि खण्ड । मैं अपने पिताके बंशको कैसे भंडू । ver शील सिङ्गार अरी नथ तार गये भर्तारके संग आभरना निर्नम नेम बिन० ॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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