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________________ बारहमासा जुल। २८३ ताल महा जल बरसे। बिन परसे श्रीभगवन्त मेरा जी तरसे । मैं तज दई तीज सलोन पलट गई पौन मेरा है कौन मुझे जग तरना। निम नेम बिन हमें जगत क्या करना । भादों मास ( झड़ी) सखि भादों भरे तलाब मेरे वितचाव करूगी उछाव से सोलहकारण। करू दसलक्षण के व्रत से पाप निवारण। करू रोट तीज उपवास पञ्चमी अकास अष्टमी खास निशल्य मनाऊ । तपकर सुगन्ध दशमी को कर्म जलाऊ ॥ ( झर्षटे )--सखि दुद्धर रसकी बारा। तजिहार चार पर. कारा। करू' उग्र उग्र तप सारा । ज्यों होय मेरा निस्तारा। ( झड़ी )-मैं रत्नत्रय व्रत धरू चतुर्दशी करू' जगत् से तिरू करू पखवाड़ा। मैं सब से क्षिमाउ दोष तजू सब राड़ा। मैं सातों तत्व विवार कि गाऊ मल्हार तजा संसार तो फिर क्या करना । निर्नेम नेम बिन हमैं जगत् क्या करना ॥ आसोज मास ( झड़ी) सखि आगया मास कुवार लो भूषण तार मुझे गिरनार का दे दो आज्ञा । मेरे पाणिपात्र आहारकी है परतिज्ञा । लो तार ये चडामणी रतनकी कणी सुनों सब जनी खोल दो बैनी। मुझको अवश्य परभातहि दीक्षा लैनी ॥ (झबर्ट )-मेरे हेतु कमण्डल लावो। इक पीछी नई मंगावो मेरा मत ना जो भरमावो । मम सूते कर्म जगावो॥ __(झड़ी)-है जगमें असाता कर्म बड़ा वेशर्म मोहके भरमसे धर्म न सूझ । इसके वश अपना हित कल्याण न बूझे। जहां मृग
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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