SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार भाषा। २४९ अति मधुर जिन ध्वनि सम सुप्रीणित प्राणि वर्ग खभावसों। बुध चित्त समहर पित्त नित्त सुमिष्ट इष्ट उछाव सों। तत्काल इक्षु समुत्थ प्राशुक रत्न कुम्भ विणे भरों॥ यम पास तात निवार जिन त्रय धार दे पायन परों ॥५॥ इति इक्षु रस धारा ॥ निष्टत क्षिप्त सुवर्ण मद दमनोय ज्यों विधि जैनकी। आयु प्रदा बल बुद्धिदा रक्षा सु यों जिय सैनकी ॥ तत्काल मंथित क्षीर उत्थित प्राज्य मणि झारी भरों। दीजे अतुल बल मोहि जिन त्रय धार दे पायन परों ॥ इति घृत धारा ॥ शरदान शुभ्र सुहाटक द्युति सुरशि पावन सोहनो। क्लै व्यक्त हर बल धरन पूरन पय सकल मन मोहनी ॥ कद उष्ण गोधन तें समाहृत घट जटित मणि में भरों। दुर्बल दशा मो मेट जिन त्रय धार दे पायन परों ।। ७ ।। इति दुग्ध धारा ॥ वर विशद जैनाचार्य ज्यों मधुराम्ल कर्कशिता धरै । शुचि कर रसिक मथन विमथित नेह दोनों अनुसरै ॥ गो दधि सुमणि भृङ्गार दूरन ल्याय करि आगे धरों। दुख दोष कोष निवार जिन त्रय धार दे पायन परों ॥ ८॥ इति दधि धारा ॥ दोहो-सा पधी मिलाय के, भरि कञ्चन भृङ्गार । यजो चरण त्रय धार दे, तारि तार भवतार ॥ ६ ॥ ॥ इति सवौं पधी धारा॥ (८) प्रातःकालकी स्तुति । चोतराग सर्वज्ञ हितंकर भविजन की अब पूरो आस ॥ ज्ञानभानुका उदय करो मम मिथ्यातमका हो अव नाश ॥१॥ जीवोंकी हम करुणा पाले झूठ वचन नहीं कहै कदा ॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy