SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० जिनवाणी संग्रह। परधन कबहुन हरहूं स्वामो ब्रह्मवर्य ब्रत रहे सदा ॥२॥ तृष्णा लोभ बढ़ न हमारा तोष सुधा निधि पिया करें ॥ श्री जिन धर्म हमारा प्यारा तिसकी सेवा किया करें ॥३॥ दूर भगावे बुरी रीतियां सुखद रीतिका करें प्रचार ॥ मेल मिलाप बढावे हमसब धर्मोन्नतिका करे प्रगर ॥ ४ ॥ सुखदुखमें हम समता धारै रहें अवल जिमि सदा अटल ।। न्याय मार्गको लेश न त्यागे वृद्धि करें निज आतमबल ॥५॥ अष्टकर्म जो दुःख हेतु हैं तिनके छयका करें उपाय ।। नाम आपका जपें निरंतर विघ्नशोक सब ही टल जाय ॥६॥ आतम शुद्ध हमारा होवे पाप मैल नहीं चढ़े कदा ॥ विद्याकी हो उन्नति हममें धर्म ज्ञान हूं बड़े सदा ॥ ७ ॥ हाथ जोड कर शीप नवावे तुमको भविजन खड़े खड़े ॥ यह सब पूरो आस हमारी चरण शरण में आन पड़े ॥ ८ ॥ (8) सायंकालकी स्तुति हे सर्वश ! ज्योतिमय गुणमणि बालक जनपर करहु दया कुमति निशा अधयारीकारी सत्य ज्ञान रवि छिपा दिया ॥१॥ क्रोध मान अरु माया तृष्णा यह बटमार फिरे चहुं ओर ।। लूट रहे जग जीवनको यह देख अविद्या नमका जोर ॥ २ ॥ मारग हमको सूझे नांही ज्ञान बिना सब अन्ध भये । घटमें आप विराजो स्वामी बालक जन सब खड़े नये ॥३॥ सतपथ दर्शक जनमन हर्षक घट घट अंतरयामा हो । श्री जिनधर्म हमारा प्यारा तिसके तुम ही स्वामी हो ॥४॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy