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________________ २४८ जिनवाणी संग्रह। रङ्ग महल में सोवते, कोमल सेज बिछाय । सो अब पश्चिम रेनि में पोढे सम्बर काय ॥ ८ ॥ गज चढ़ चलते गर्व से सेना सज चतुरङ्ग। निरख निरख भूपद धरे । पाले करुणा अङ्ग ॥ १० ॥ पूर्व भोग न चिन्तवें, आगे वांछा नाहि । चहुं गति के दुख से डरे सुरति लगी शिव मांहि ॥ ११ ॥ ते गुरु चरण जहां धरे तह, तह तीरथ होय । सो रज मम मस्तक चढ़ी भूधर मांगे सोय ॥१२॥ (७) धारे भाका दोहा-श्रीजिनवर चौबीसवर कुनयनांत हर भान । अमित बीय्य द्वग बोध सख युत तिष्ठो इह थान । १ । । परि पुष्पांजलि क्षिपेत ) इति स्थापनम् । त्रिभङ्गी छन्द गिरीश शीश पाण्ड, पै सतीश ईश थापियो । महोत्सवो आनन्द कन्द को सबै तहां किया ॥ हमें सो शक्ति नाहिं व्यक्तदेखि हेतु आपना। यहां करें जिनेन्द्र चन्द्रकी मु विम्ब थापना। २ । सुन्दरी छन्द । कनक मणिमय कुम्भ सहावने। हरि सुक्षीर भरं अति पावने ॥ हम सुवासित नीर यहां भरे। जगन् पावन पांव तर धरे ॥२॥ ॥ इति कलश स्थापना ॥ गीताका छन्द । __ शुद्धोपयोग समान भ्रन हर परम सौरभ पावनो । आकृष्ट भ्रङ्ग समूह गङ्ग समुद्भवो अति पावनो ॥ मणि कनक कुम्भ निशुम्भ किल्विष विमल शीतल भरि धरा। श्रम स्वेद मल निरवार जिनत्रय धार दे पायन परों ॥ ४॥ ॥ इति जल धारा ।।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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