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________________ * अरहंतपासाकेवली * २१५ ररअ । ररअ अंक आवै जहां तब ऐसो फल जान । तव चित चंचल वाल अति, सुनि प्रेच्छक मतिमान ॥ ६॥ तैं चाहत अर्थागमन,मूलनाश तसु होइ । राजदण्ड चौराग्निभय,तनदुख तोहि बहोइ ॥६२॥ तनय तिया बांधवनिप्लों है है नोहि वियोग। अपने तिसरे वरसमह, कहि सकलदुखभोग ॥ ६३ ॥ ररर । तिहुं रकारको फल सुनो, मनवांछित फलदाय । धरा धान्य धनलाभ तोहि,मिलहि वस्तु सब आय॥६॥तिया तनय सुन वधू धन, इष्टबंधुसंजोग। कृत उत्तम कल्याण तोहि, मिलें सकल संभोग ॥६५॥ महालाभ उद्यमविषे, सदन तथा परदेश । सुफल काज तुब होय नित, यामें भ्रम नहि लेश ॥६६॥ ररह। दुइ रकारपर ह परै, नब मनवांछित होय । शोभनीक सुखसंपदा,सहज मिलावै सोया ६७॥मंगल दुदुभि होई धुनि, अरथलाभ बहु तोहि । मिलि है वसुधा देश पुर, यह प्रतिभासत मोहि ॥६८॥ जोन काज तुम चिन धरउ, तुरित होइ है तोन भू. पति अति आनन्द कर, तिन प्रति मंगलभौन ॥६॥ ररत । ररत वरन यह कहत हैं, सुन पूछक चित लाय । परतियको अभिलाषते; किये अनर्थ उपाय ॥ ७० ॥ अरथनाश ताते भयो, अरु विह घामाहिं । राजदंड नैंने सहे, यामें संशय नाहिं ॥ ७९ ॥ तातें परतिय परिहरहु, शुभमारग पग देहु । ब्रह्मचरजजुन प्रभु भजो, नरभवको फल लेहु ॥ ७२ ॥ रहे । ग्हंअकार आवे जहां, नहं उत्तम फल जान । वनितापुत्रधनागमन, बंधुसमागम मान ॥७३॥ अरथलाभ जसलाभ
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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