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________________ २१४ #* जिनवाणी संग्रह * तुव धुव विजय बुधिवान ॥ ४७ ॥ वादानुवादमंकार । तुव जीत होय उदार । यामें न संशय करहु । शुभ जानि घोरज घरहु ॥४८॥ अथ रकारादि द्वितीय प्रकरण । राय । आदिरकार अकार दुइ, जब ये प्रगटें वर्न । तब धनसंपतिलाभ बहु, सुजनसमागम कर्न ॥ ४६ ॥ सोना रूपा ताम्र बहु, वसनाभरन सुरन । प्राप्त होय निश्चय सकल, चिंतित वित जुतजन ॥ ५० ॥ अन्तरैन दीखे सुपन, माला सुमन सुज्ञान । हयगजरथ आरूढ़ अरु, देवागमन विमान ॥ ५१ ॥ रार | आदि रकार अकार पुनि, तापर परै रकार । सुनि पूछ तैं तासु फल, है अभिमतदातार || ५२ || देश प्रजाको लाभ है, खेती वर व्यापार | धन पावै परदेशमें, घर में सब सुखसार ॥५३॥ संगर संकट घोर में, कुलदेवी सुखदाय । करे सहाय प्रसाद तसु, सब विधि सिद्धि लहाय ॥ ५४ ॥ । राहं | आदि रकार अकार पर, हं प्रगटे जब आय । भयकारी धनहानि यह, कृश अशेष कराय ॥५५॥ यह कारज कर्तव्य नहि लाभ नाहिं या माहिं । बांधव मित्र वियोगता, अस यह सगुन " कहाहिं ॥ ५६ ॥ जह' कहुं जाहु विदेश नहीं सिद्ध न होवे काज । नातें थिर है कछुक दिन, सुमिरहु श्रोजिनराज ॥ ५७ ॥ रयत । अत पर पाँसा कहे, मग धन लूटहि चोर | द्रव्यहानि हो वहि बहुत, अशुभ फलहि चहुं ओर ॥ ५८ ॥ नाव बु पावक लगे, रोगरु कष्ट कुजोग । कियो काज विनशे सकल, अशुध 'करमके भोग ॥५६॥ तातें शोक न कीजिये, भावीगति बलवान । थिर है निशदिन सुमिरिये, कृपासिंधुभगवान ॥ ६० ॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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