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________________ २१६ * जिनवाणी संग्रह * पुनि, धामलाभ ह नोहि । रन विदेश व्यापारमें, विजय तुरंतहि होहि ॥ ७४ ॥ रहर । रहर आवै जबहि तब, विषम काज जिय जान । उद्यम सुफल न होय कछु, घर बाहर हैर न ॥७॥ शत्रु बहुत सुख कतहुँ नहि, तार्ने तजि यह काज । जग सुख निष्फल जानि जिय, भजो सदा जिनराज ॥ ७६ ॥ रहह । हजुग आदिरकार कह, सुनिये पूछनहार। अशुभ उदय फल अशुभ है,जानहु निज उर धार॥७७॥ मत विश्वास करो हिये, मित्र बंधु जिय जानि । शत्रु होय ये परिनवहिं कहिं वित्तकी हानि ॥ ७॥ धनविन्ता नित करत हो, सो सुपनेहु नहिं होइ । धरम चिन्ति कुल देव जजि, तातै कछु सुख जोइ ॥ ७ ॥ रहंत । रहं तासुपर प्रगट त सुनि फल पूछनहार । याको फल मैं कहा कहों: सब सुखको दातार ॥ ८० ॥ विद्या लाभ कवि तता: सुफल लाभ व्यवहार। वनिता सुतको लाभ है, द्रव्यलाम व्यापार ॥ ८१ ॥ मित्रबंधु वसनाभरण, सहित समागम होई । चहहु सुखित परिवार सों, कुलदेवीकृत जोइ ॥८२॥ रतमारत अ वरन पांसा कहत, तुव सम्मुख सौभाग। अस्थागम कल्याणकर, असन सुखद अनुराग ॥ ८३ ॥ मंत्रजंत्र औषधविय, सकल सिद्ध ध्रुव होइ । चित विन्तित पुत्रादि सुख, निश्चय पैहैं सोइ ॥ ८४ ॥ रतर। रतर वरन पासा कहत, सुनि पूछक गहि मौन । उद्यममें लक्ष्मी वसै, ज्यों पंखे में पौन॥८५॥ तात उद्यम करहु तुम,
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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