SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अरहंतपासाकेवली. २१३ अहंत । अक्षर अहंत परै । तय सकल शुभ विस्तर । कल्याणमंगल धाम । सुत भ्रात मिलहि मुदाम॥३५॥ उद्यमविषै धनधान्य । संपतिसमागम मान्य । रनके विर्षे सब जीत । तोहि लाभ निश्चय मीत ॥ ३६ ॥ अरु होय बंदीमोच्छ। निरबाध है यह पच्छ । तुव हे मनोरथ सिद्ध । मति मान संशय वृद्र ॥ ३७॥ प्रतत्रा यह अतअ भाषत वरन । कल्याणमंगलकरन । उद्यममें श्रीविस्तरन। सब विघ्नग्रहभयहरन ॥ ३८ ॥ सुतपौत्रलाम निहार। वांछित मिलै मनिहार । दिन आठये कछु तोहि । कछ श्रेष्ठ मावो होई ॥३॥ अतर । जो अतर अक्षर ढरै। तो सकल मंगल करें । वाजिब सदन सुनाय। घरमाहिं अनंद बधाय ॥ ४० ॥ प्रियबंधुचिंता होहि । तसु मोद मंगल होहि । धनधान्यसंजुत होय । घर शीघ्र आवै सोय ॥४१॥ गजवाजि रथारूढ़ । भूपन वसनजुत प्रूढ़ । संजुन अमित कल्यान । निरभै मिले भयभान ॥४२॥ अहंत । अतह ढरै जो अंक । सो अशुभ कहत निशंक । नहि लाभ दीखत भाय। धन हाथहूको जाय ॥ ४३ ॥ है इष्टबंधुवियोग। तियतनयसंपतियोग। राजादि चोररु मरो। हैं शत्रु सबही घरो॥४३॥ तिहि विघननाशन हेन । कर देवजजन सुचेत। तिहि पुण्यके परभाव । घर होइ मंगलचाव ॥४५॥ अतत । जई अतत आवै वरन । धनलाभ तहबुधि वरन । संपदा सुखविस्तरन । सब सिद्धि वांछित करन ॥ ४६ ॥ प्रिय इष्ट बंधू मिलन । सब लाभ दिन प्रति दिनन । उद्यम तथा रनथान
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy