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________________ २१२ * श्रीजिनवाणी संग्रह - तसुरंच ही भय नाहिं । निज इष्ट पूजह जाय। सब विघन जांय नसाय ॥ २२ ॥ मन सोच तजि थिर होहि । आनन्द मङ्गल तोहि । सब सिद्धि है है काज । अरहं कहत महाराज ॥ २३॥ अरत । जब अरत पांसा ढरै । तब सकल सुख विस्तरै । तोहि तिया प्रापति होय । सुत होय पौत्रपि होय ॥२४॥ कुलगोत सब सोभंत । तब भाल तिलक लसंत । जहँ जाहुगे तुम मीत । तह लहहु पूजा नीत ॥२५॥ जनमध्य हो तुम केम। ताराविर्षे शशि जेम । यह रुचिर प्रश्न सुजान । मनमें धरो प्रभुभ्यान ॥२६॥ अहं । जो अहंअ छवि देय । तो सुनहु पूछक भेय । पहिले कछुक दुख होइ । फिर नाश हूँ है सोय॥२७॥धनलाभ दिन दिन बढ़ । अरु सुजनसंगम चढ़े। जो काम चिंतहु वृद्ध । सो सकल है है सिद्ध ॥ २८॥ अहंर । जब अहंर सु दरसाय। तब अरथलाभ कराय । जसलाभ पृथिवीलाम । यह देख परत सुसाम (१) ॥२६॥ राजादि वंधवर्ग। सब करहिं आदर सर्ग। भ्रातादि इष्टमिलाप। धनधान्य आगम ब्याप ॥३०॥ व्यवहार अरु परदेस । सब ओर उत्तम तेस । सब सोच संशय हरहु । शुभ तुमहि धीरज धरहु ॥३१॥ - अहंह जो अहंहं है अंक । सो कहत है फल बंक । दोखे नकारज सिद्ध । यह काज तोर सुबुद्ध॥३२॥धन नाश है हैं तोहि । तन क्लेस पीड़ा होहि । व्यापारमें धनहान । परदेश सिद्धि न जान ॥३॥ तिहिहत कर भविजीव । जिन जजन भजन सदीव । जप दान होम समाज । तब होइ कछु इक काज ॥२४॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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