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________________ * अरहंतपासाकेवली * २११ अत । जहं दुइ अकार पर है तकार । तहं शुभ फल जानो हे उदार । बहु मित्र मिलें भू वस्त्र ताहि । अरु पुत्र पौत्र ह्र सदनमाहिं ॥११॥ रोगीको रोग विनाश होय क्रूरग्रहको निगृह भि होय । जो मित्र बंधु परदेश होय, घर आवै अति मन मुदित सोय ॥ १२ ॥ कुलवृद्धि तथा सज्जन महान । तिनसों नित प्रीति बढ़ सयान | दिन दिन अति लाभ मिले पुनीत । यह प्रश्न केवली कहत प्रोति ॥ १३ ॥ अरा । दुइ अकारके मध्य रकार । पांसा पर तासु सुविचार | उत्तम फलकारी यह होत । नित नव मंगल होत उदोत ॥ १४ ॥ पूरब जो धन गयो नसाय । सो सब तोहि मिलेगो आय । राजा करहिं बहुत सनमान । बसन भूमि हय देवहि दान ||१५|| भ्राता मित्र समागम होहि । सब विधि सदनमहोच्छव तोहि । सकल पापको होय विनाश | धर्मवृद्धि नित करै प्रकाश ॥ १६ ॥ अरर । जो अरर प्रगटै वरन । तो सकल मंगल करन । धन लाभ सूचत येह । दशदिश विमल जस तेह ॥ १७ ॥ जहं जाय वह मतिवंत । तह लहै पूजा संत । हैं इष्टबंधुमिलाप । उद्यमविषै श्री आप ॥ १८ ॥ जल चोर पावक मरी। ये सकहिं नहिं कछु करी । सब शत्रु 'कीजे हान । प्रगटे सकल कल्यान ॥ १६ ॥ जिनधरमके परभाव । यह जान है सद्भाव । उत्तम कहत फल अंक । उत्तम हो निःशंक ॥ २० ॥ अरहं । अरहं परे जो वरन । सौभाग्यसंपतिकरन । तो जो मनोरथ हो । अनयास पूजै सोय ॥२१॥ कछु क्लेश है घरमा हिं
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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