SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयों की प्रामाणिकता ] [ २३ जैसे अंशी वस्तु में प्रवृत्ति करने वाले ज्ञान को प्रमाण माना जाता है वैसे ही वस्तु के अंश में प्रवत्ति करने वाले अर्थात् जाननेवाले नय को प्रमारण क्यों नहीं माना जाता; अतः नय प्रमागास्वरूप ही है ।।७।। उक्त आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि जिस अंशी या धर्मी में उसके सब अंश या धर्म गौग्ण हो जाते हैं उस अंशी में मुख्यरूप से द्रव्याथिकनय की ही प्रवृत्ति होती है अर्थात् ऐसा अंशी द्रव्याथिकनय का विषय है, अतः उसका ज्ञान नय है। और धर्म तथा धर्मी के समूहरूप वस्तु के धो और धर्मी दोनों को प्रधानरूप से जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । अतः नय प्रमाण से भिन्न है ॥८-६।।" प्रमाण और नय का अन्तर स्पष्ट करते हए धवलाकार लिखते हैं : "कि च न प्रमाणं नयः, तस्यानेकान्तविषयत्वात् । न नयः प्रमाणं, तस्यकान्तविषयत्वात् ।' प्रमाण नय नहीं हो मकता, क्योंकि उमका विषय अनेकान्त अर्थात् अनेक धर्मात्मक वस्तु है । और न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि उसका विषय एकान्त अर्थात् अनन्त धर्मात्मक वस्तु का एक अंश (धर्म ) है।" प्रमाणशास्त्र के विशेषज्ञ प्राचार्य अकलंकदेव तो नय को सम्यक्एकान्त और प्रमाण को सम्यक्-अनेकान्त घोषित करते हुए लिखते हैं : "सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते । सम्यगनेकान्तः प्रमारणम् । नयापरणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवरणत्वात्, प्रमाणापरणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात् ।। सम्यगेकान्त नय कहलाता है और सम्यगनेकान्त प्रमाण । नयविवक्षा वस्तु के एक धर्म का निश्चय करानेवाली होने से एकान्त है और प्रमारणविवक्षा वस्तु के अनेक धर्मो की निश्चयस्वरूप होने के कारण अनेकान्त है । प्रमाण सर्व-नयरूप होता है, क्योंकि नयवाक्यों में 'स्यात्' शब्द लगाकर बोलने को प्रमागग कहते हैं । अस्तित्वादि जितने भी वस्तु के निज स्वभाव हैं, उन सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करनेवाला प्रमाण है और उन्हें गौगा-मुख्य भाव से ग्रहण वाला नय है । १ जनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग २, पृष्ठ ५१६ २ तत्त्वार्थराजवानिक, अ० १, सूत्र ६ ३ स्याद्वादमंजरी, श्लोक २८, पृष्ठ ३२१ ४ वृहन्नयचक्र (देवसेनकृत), गाथा ७१
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy