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________________ २२ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् इसका उत्तर देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि प्रमाणता और अप्रमाणता के सिवाय भी एक तीसरी गति है, वह है प्रमाणैकदेशता-प्रमाण का एकदेशपना । प्रमाण का एकदेश न तो प्रमागग ही है क्योंकि प्रमारण का एकदेश प्रमाण से सर्वथा अभिन्न भी नहीं है; और न अप्रमाण ही है क्योंकि प्रमारण का एकदेश प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है। देश और देशी में कथंचित् भेद माना गया है।" 'श्लोकवार्तिक' में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है, वह इसप्रकार है : "स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमारणं नय इत्यसत् । स्वार्थंकदेशनिर्णोतिलक्षणो हि नयः स्मृतः ॥४॥ . नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥५॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता । समुद्रबहुता वा स्यात्तत्त्वे क्वाऽस्तु समुद्रवत् ॥६॥ यथाशिनि प्रवृत्तस्य ज्ञानस्येष्टा प्रमाणता। तथांशेष्वपि किन्न स्यादिति मानात्मको नयः ॥७॥ तन्नांशिन्यपि नि.शेषधारणां गुरणतागतौ । द्रव्याथिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः ॥८॥ धर्ममिसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विदः । प्रमारणत्वेन निणीतेः प्रमारणादपरो नयः ॥६॥ स्व और अर्थ का निश्चायक होने में नय प्रमाण ही है - ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि स्व और अर्थ के एकदेश को जानना नय का लक्षगग है ।।४।। वस्तु का एकदेश न तो वस्तु है और न अवस्तु है। जैसे - ममुद्र के अंश को न तो समुद्र कहा जाता है और न असमुद्र कहा जाता है। यदि समुद्र का एक अंश समुद्र है तो शेष अंश असमद्र हो जायेगा और यदि समुद्र का प्रत्येक अंश समुद्र है तो बहुत मे समुद्र हो जायेंगे और ऐसी स्थिति में समुद्र का ज्ञान कहाँ हो सकता है ? ||५-६॥ १ द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ २३१-२३२, शलोक १० की व्याख्या २ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक : नयविवरण, श्लोक ४-६
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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