SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ ) [ जिनवरस्य नयचक्रम् मुख्य धर्म को विवक्षित धर्म और गौण धर्म को अविवक्षित धर्म कहते हैं। पर ध्यान रहे नयों के कथन में अविवक्षित धर्मों की गौणता ही अपेक्षित है, निषेध नहीं। निषेध अपेक्षित होने पर वह नय नहीं रह पावेगा, नयाभास हो जावेगा। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में नय की परिभाषा में 'अनिराकृत प्रतिपक्ष' विशेषण डालकर 'गौरण' शब्द का भाव अत्यन्त सफलतापूर्वक स्पष्ट कर दिया गया है । आशय यह है कि जिन धर्मों को प्रतिपक्ष मानकर गौण किया गया है उनका निराकरण नहीं किया गया है, अपितु उनके संबंध में मौन रखा गया है, उनका विधि-निषेध कुछ भी नहीं किया गया है, उनके बारे में चुप्पी ही गौणता का रूप है। मार्तण्डकार की परिभाषा इस प्रकार है :"प्रनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः ।' प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है।" यह मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा नहीं, अपितु वक्ता की इच्छानुसार होती है। विवक्षा-अविवक्षा वाणी के भेद हैं, वस्तु के नहीं । वस्तु में तो सभी धर्म प्रतिसमय अपनी पूर्ण हैसियत से विद्यमान रहते हैं, उनमें मुख्य-गौण का कोई प्रश्न ही नहीं है - क्योंकि वस्तु में तो अनन्त गुणों को ही नहीं, परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनन्त धर्म-युगलों को भी अपने में धारण करने की शक्ति है । वे तो वस्तु में अनादिकाल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे भी। उनको एक साथ कहने की सामर्थ्य वाणी में न होने के कारण वाणी में विवक्षा-अविवक्षा और मुख्य-गौण का भेद पाया जाता है। इस कारण ही वक्ता के अभिप्राय को नय कहा गया है । नय ज्ञानात्मक भी होते हैं और वचनात्मक भी । जहाँ ज्ञानात्मक नय अपेक्षित हों वहाँ ज्ञाता के अभिप्राय को, और जहाँ वचनात्मक नय अपेक्षित हों वहाँ वक्ता के अभिप्राय को नय कहा जाता है । तथा नय सम्यकश्रुतज्ञान के भेद होने से उनका वक्ता भी ज्ञानी होना आवश्यक है। अतः ज्ञानी वक्ता के अभिप्राय को नय कहा जाता है। इसलिए चाहे ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहो, चाहे वक्ता के अभिप्राय को नय कहो- एक ही बात है। प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृष्ठ ६७६
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy