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________________ नय का सामान्य स्वरूप स्यादपद से मुद्रित परमागमरूप श्रुतज्ञान के भेद नय हैं । यद्यपि श्रुतज्ञान एक प्रमाण है तथापि उसके भेद नय हैं । इसी कारण श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहा गया है। ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय कहा जाता है। प्रमाण सर्वग्राही होता है और नय अंशग्राही; तथा नय प्रमाण द्वारा प्रकाशित पदार्थ के एक अंश को अपना विषय बनाता है। 'आलापपद्धति' में नय का स्वरूप इस प्रकार म्पष्ट किया गया है : "प्रमाणेन वस्तुसंग्रहीतार्थकांशो नयः श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः । नाना स्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नयः। प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने का नाम नय है अथवा श्रुतज्ञान का विकल्प नय है अथवा ज्ञाता का अभिप्राय नय है अथवा नाना स्वभावों से वस्तु को पृथक् करके जो एकस्वभाव में वस्तु को स्थापित करता है, वह नय है।" अनन्त धर्मात्मक होने में वस्तु बड़ी जटिल है। उसको जाना जा सकता है, पर कहना कठिन है। अतः उसके एक-एक धर्म का क्रमपूर्वक निरूपण किया जाता है। कौन धर्म पहिले और कौन धर्म बाद में कहा जाय - इसका कोई नियम नहीं है। प्रतः ज्ञानी वक्ता अपने अभिप्रायानुसार जब एक धर्म का कथन करता है तब कथन में वह धर्म मुख्य और अन्य धर्म गोगा रहते हैं । इस अपेक्षा से ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा जाता है। 'तिलोयपण्णत्ति' में कहा है :"गाणं होदि पमाणं रणनो वि रणादुस्स हिदियभावत्थो।' सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा जाता है।" कहीं-कहीं वक्ता के अभिप्राय को नय कहा गया है । 'तिलोयपण्णत्ति, प्र० १, गाथा ८३ ५ स्यावादमंजरी, श्लोक २८ की टीका
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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