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________________ नयज्ञान की आवश्यकता ] [ १३ 'पुरुषार्थसिद्ध युपाय' के ५εवें श्लोक की टीका के भावार्थ में सचेत करते हुए प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी लिखते हैं : "जैनमत का नयभेद समझना अत्यन्त कठिन है, जो कोई मूढ़ पुरुष बिना समझे नयचक्र में प्रवेश करता है वह लाभ के बदले हानि उठाता है ।" वीतरागी जिनधर्म के मर्म को समझने के लिए नयचक्र में प्रवेश अर्थात् नयों का सही स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक है; उनके प्रयोग की विधि से मात्र परिचित होना ही आवश्यक नहीं, अपितु उसमें कुशलता प्राप्त करना जरूरी है । जिसप्रकार अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाली तलवार से वालकवत् खेलना खतरे से खाली नहीं है; उसीप्रकार अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाले नयचक्र का यद्वा तद्वा प्रयोग भी कम खतरनाक नहीं है । जिसप्रकार यदि तलवार चलाना सीखना है तो सुयोग्य गुरु के निर्देशन में विधिपूर्वक सावधानी से सीखना चाहिए; उसीप्रकार नयों की प्रयोगविधि में कुशलता प्राप्त करने के लिए भी नयचक्र के संचालन में चतुर गुरु ही शरण हैं । कहा भी है : गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंचारा: । ' क्योंकि : " मुख्योपचार विवरण निरस्तदुस्तर विनेयदुर्बोधा व्यवहार- र - निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । मुख्य और उपचार कथन से शिष्यों के दुर्निवार अज्ञानभाव को नष्ट कर दिया है जिन्होंने और जो निश्चय व्यवहार नयों के विशेषज्ञ हैं, वे गुरु ही जगत में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं ।" जिनोदित नयचक्र की विस्तृत चर्चा करने के पूर्व सभी पक्षों से मेरा हार्दिक अनुरोध है कि अरे भाई ! जैनदर्शन की इस अद्भुत कथनशैली को चक्कर मत कहो, यह तो संसारचक्र से निकालने वाला अनुपम चक्र है । इसे समझने का सही प्रयत्न करो, इसे समझे बिना संसार के दुःखों से बचने का कोई उपाय नहीं है । इसे मजाक की वस्तु मत बनाओ, ' पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक ५८ २ वही, श्लोक ४
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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