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________________ १२ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् अनादिकालीन मिथ्यात्व की ग्रंथि का भेदन प्रात्मानुभवन के बिना संभव नहीं है, और प्रात्मानुभवन प्रात्मपरिज्ञानपूर्वक होता है। अनन्तधर्मात्मक प्रर्थात् अनेकान्तस्वरूप प्रात्मा का सम्यज्ञान नयों के द्वारा ही होता है। अनेकान्त को नयमूलक कहा गया है। अतः यह निश्चित है कि मिथ्यात्व की ग्रंथि का भेदन चतुराई से चलाये गए नयचक्र से ही संभव है। नयों की चर्चा को ही सब झगड़ों की जड़ कहनेवालों को उक्त आगम-वचनों पर ध्यान देना चाहिए। नयों का सम्यक्ज्ञान तो बहुत दूर, नयों की चर्चा से भी अरुचि रखने वाले कुछ लोग यह कहते कहीं भी मिल जावेंगे कि “समाज में पहिले तो कोई झगड़ा नहीं था, सब लोग शांति से रहते थे, पर जब से निश्चय-व्यवहार का नया चक्कर चला है, तब से ही गांव-गांव में झगड़े प्रारंभ हो गए हैं।" ये लोग जानबूझकर 'नयचक्र' को 'नया चक्कर' कहकर मजाक उड़ाते हैं, समाज को भड़काते हैं । जहां एक ओर कुछ लोग नयज्ञान का ही विरोध करते दिखाई देते हैं, वहाँ दूसरी ओर भी कुछ लोग नयों के स्वरूप और प्रयोगविधि में परिपक्वता प्राप्त किये बिना ही उनका यद्वा-तद्वा प्रयोग कर समाज के वातावरण को अनजाने ही दूषित कर रहे हैं। उन्हें भी इस ओर ध्यान देना चाहिए कि प्राचार्य अमृतचंद्र ने जिनेन्द्र भगवान के नयचक्र को अत्यन्त तीक्ष्णधारवाला और दुःसाध्य कहा है।' पर ध्यान रखने की बात यह है कि दुःसाध्य कहा है, असाध्य नहीं। अतः निराश होने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु सावधानीपूर्वक समझने की आवश्यकता अवश्य है; क्योंकि वह नयचक्र अत्यन्त ही तीक्ष्ण धारवाला है। यदि उसका सही प्रयोग करना नहीं पाया तो लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। १ जह सत्यागं माई सम्मत्तं जह नवाइगुग्गणिलए। धाउवाए रसो तह रणयमूलं प्रणेयंते ॥ - जैसे शास्त्रों का मूल प्रकारादि वर्ग हैं, तप आदि गुणों के मंडार साधु में सम्यक्त्व है, धातुवाद में पारा है; वैसे ही अनेकान्त का मूल नय है । - द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा १७५ २ अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । - पुरुषार्थसिन्युपाय, श्लोक ५६
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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