SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपनी बात ] इमसे अपने श्रोताओं को नाजा और नया चिन्तन तो देता ही हूँ, उनके द्वारा प्राप्त प्रश्नो के माध्यम से लेग्वनी में विपय भी उमप्रकार स्पष्ट होता चला जाता है, जिसमे मर्व साधारण उसे ग्रहगा कर सके । दमप्रकार विषय की मग्लता और महजता मे मेरे प्रतिभाशाली छात्रो एब श्रोताओ का भी बहुत बड़ा योगदान है, परन्तु उनका नामोल्लेख करना न ना मुझे उचित ही प्रतीत होता है और न मम्भव ही है । आत्मधर्म में निरन्तर प्रकाशित होने में आत्मधर्म के माध्यम से गम्भीर पाठको का महयोग नथा मन्तव्य प्राप्त होता रहता है. जिमसे आगे विपय के विशेष स्पष्टीकरण मे महायता मिलती रही है। दमप्रकार यह जिनवग्म्य नयचक्रम्' का पूर्वार्द्ध प्रस्तुत है । अभी उत्तरार्द्ध शेष है, जिसमे द्रव्यायिक, पर्यायाथिक नंगमादि नय नथा प्रवचनमार के ४७ नय आदि का विश्लपगा एव तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना है। मे सर्वाङ्गीगा बनाने हेतु प्रात्मधर्म के मार्च १६८ अक में एक विज्ञप्ति भी निकाली गई थी। जा कि मप्रकार है ___ जिनवरग्य न्यचक्रम नाम में सम्पादकीय लेग्यमाला की प्राप अब तक मत्तरह विले पढ नरे है। म लग्यमाला का पूर्वार्द्ध ममाप्ति की ओर है या वह शीत्र ही पुस्तकासार भी पवाशित हाने जा रही है। हम चाहते है कि विषय का प्रतिपादन गर्वाग हा "मे किसी भी प्रकार की विषय मबधी कोई कमी न रह जाय , तदर्थ प्रबुद्ध पाठको का गहयोग अपेक्षित है । अत प्रबुद्ध पाठया में यह विनम्र अनुराध - वि व प्रबना प्रागत विषयवस्तु TTE वार गम्भीरता मे पुनरावलोकन । यदि वहीं गाई म्बलन अपूर्णाना या विरोधाभास प्रतीत हो अथवा काई गंगा प्रश्न. गया या प्राणका शेप रह जानी हो जिममा समाधान अपेक्षित हा ना तत्काल यहा मूचित करे : जिममे उनके अनुभव का लाभ उठा र कृति को मर्वागीगा बनाया जा गके ।' - उपर्युक्त अनुराध भी निष्फल नहीं गया। पाठको के अनेक पत्र प्राप्त हुए, जिनसे इस विषय में उनकी गहरी रुचि और अध्ययन का पता तो चला ही. माथ ही ऐसे बिन्दु भी ध्यान में आये जिनका स्पष्टीकरण अत्यन्त आवश्यक था। एमके नामकरण के सम्बन्ध मे भी मुझे एक बात कहनी है कि यह नयचक्र जिनेन्द्र भगवान का हे. गमे मेरा कुछ भी नहीं है। यह सोचकर ही इसका नाम 'जिनवरस्य नयचक्रम्' रखा है। दूसरी बात यह है कि यह ग्रन्थ तो हिन्दी भाषा में है और नाम है संस्कृत में - इम सन्दर्भ मे भी मैने बहुत विचार किया, पर प्राचार्य अमृतचन्द्र के श्लोक' का 'जिनवरस्य नयचक्रम्' - यह अंश मेरे मन को इतना भाया १ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ५६
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy