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________________ [ जिनवरस्य नयचक्रम् सम्पादकीयो मे 'दशधर्मो' के समान नय प्रकरगो पर सरल सुबोध भाषा मे लिखने का आग्रह किया था; पर चाहते हुए भी जब तक 'धर्म के दशलक्षण' और 'क्रमबद्धपर्याय' के प्रकरण समाप्त नही हुए तब तक यह कार्य प्रारम्भ न हो सका। इस बीच नयो सम्बन्धी मेरा अध्ययन-मनन चालू रहा, पर इस विषय की विशालता और गम्भीरता को देखते हुए जब-जब दम पर कलम चलाने का विचार किया, तब-तब अनेको सकल्प-विकल्प मामने आये, टूटी-फूटी नाव मे मागर पार करने जैसा दुस्माहम लगा। पूज्य गुरुदेव श्री कानजी म्वामी का वरदहस्त और मगल आशीर्वाद ही मुझे इस महान् कार्य में प्रवृत्त कर सका है। क्योकि इसके प्रारम्भ का काल भी वही है, जबकि पूज्य गुरुदेवश्री ‘क्रमबद्धपर्याय' और 'धर्म के दशलक्षग' की दिन-रात प्रणमा कर रहे थे, लोगो को उनका स्वाध्याय करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। फरवरी, १६८० में मम्पन्न बडोदा पचकल्याणक के अवमर पर बीच प्रवचन में जब उन्होने मुझे सभा मे से उठाकर अपने पास बुलाया, पीठ ठाकी और अपने पाम ही बिठा लिया तथा अनेक-अनेक प्रकार से सम्बोधित किया, उत्साहित किया तो मुझमे वह शक्ति जागृत हो गई कि घर आते ही मैंने जिनवरम्य नयचक्रम्' लिखना प्रारभ कर दिया और अप्रेल, १९८० के अक में प्रात्मधर्म में भी इसे प्रारंभ कर दिया। आज उनके अभाव में उनके ६३बे पावन जन्म-दिवम पर टसे पुस्तकाकार प्रकाशित होते देख हृदय भर पाता है और विचार प्राता है कि उनके विरह में अब कोन पीठ थप-थपायेगा कोन शाबामी देगा और कौन जन-जन का दमे पढ़ने की प्रेग्गगा देगा? प्रादग्गीय विद्वद्वयं पडित श्री लालचन्दजी भाई ने भी एकबार मुझसे प्राचार्य देवसेन के 'श्रतभवनदीपक नयचत्र' के एक प्रश का अनुवाद करवाया, क्योकि उन्हें प्राप्त अनुवाद में मन्नोप न था। जब मैने उन्हे अनुवाद करके दिया नो उमे पढकर वे एकदम गद्गद् हो गये। उन दो पृष्ठो को वे वर्षों मभाल कर रखे रहे नथा जब-तब ग्रथ का पूग अनुवाद करने की प्रेग्गणा भी निरन्तर देते रह । पर मेरी इच्छा तो नयो के मर्वागीगा विवेचन प्रस्तुत करने की थी। यद्यपि मै उनकी उस आज्ञा की पूर्ति नही कर मका, तथापि दमके प्रगायन में उनकी प्रेरणा एव उत्माहवर्धन ने भी मंबल प्रदान किया है । मेरी एक प्रवृत्ति है कि जब-जब मै किसी विशेष विषय पर लिख रहा होता हूँ, तो मेरे दैनिक प्रवचनो में वे विपय बलात् आ ही जाते है तथा जब-जब जो भी लिखा जाता रहा, वह अपने प्रतिभाशाली छात्रों को पहले से सुनाता रहा हूँ, उनसे मथन भी करता रहा हूँ। दमीप्रकार प्रवचनार्थ बाहर जाने पर भी मैं उस विषय पर कुछ प्रवचन अवश्य करता है जो विराय मेरे लेखन मे नान रहा होता है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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