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________________ [ जिनवरम्य नयचक्रम् कि वह इसे छोडने को तैयार नहीं हुअा। अन्नर की अज्ञात प्रेरणा ही इसके मूल में रही है, इममे मेरी बुद्धि की एक भी नहीं चली है । तदर्थ विज्ञो से क्षमाप्रार्थी हुँ । दुरूह विपयवस्तु का प्रतिपादन यदि बिना शीपंको के किया जाय तो वह पाठको में ऊब पैदा करता है तथा पद-पद पर आने वाले शीर्षक प्रतिपादन प्रवाह को खण्डित करते है। इस बात का ध्यान रखकर 'जिनवरस्य नयचक्रम्' में मध्यम शैली का प्रयोग किया गया है। सम्पूर्ण विषय-वस्तु को शीर्षकों के अन्तर्गत विभाजित तो किया गया है, किन्तु उपशीर्षको को स्थान नहीं दिया गया है। बीचबीच में आनेवाले शीर्षक अध्यायो का काम करते है, जो पाठकों को यथास्थान चिन्तन करने के लिए ममय प्रदान करते है और विश्राम लेने के लिए पडाव का काम करते है। यद्यपि अध्ययन के मार्ग में उपशीर्पक का भी उपयोग है, अध्ययन करने ममय महत्वपूर्ण विषय-वस्तु कही छूट न जाय, इसके लिए वे गतिरोधक का काम करते है, तथापि ऐमा भी तो है कि पग-पग पर पाने वाले वडे-बडे गतिरोधक भी अटकाव पैदा करने है चालक में चिड़चिडापन पैदा करते हैं। दुर्घटनाग्रो को रोकने के लिए बने हुए बड़े-बड़े गतिरोधक कही-कही दुर्घटनाग्रो के हेतु भी बनते देखे जाने है । अत. यहाँ पैगग्राफो के परिवर्तन में ही गतिरोधको का नाम लिया गया है। शीर्षक नो रखे गये है. पर उपशीर्षक नही । महत्वपूर्ग शीर्षको के अन्तर्गत प्रतिपादित विषयवस्तु के मन्दर्भ मे उठने वाले प्रश्नो, शकानो व प्राणवायो के ममाधान के लिए प्रश्नोनगे के शीर्षक भी बनाये गये है । इमप्रकार इस पूर्वाद्ध में ही कुल ८६ प्रश्नोत्तर भी पा गये है. जो विषयवस्तु की दुरूहता को कम करने में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते है । जिनागम के जिन महत्वपूर्ण ग्रन्थो का अवगाहन दम ग्रन्थ के प्रगायन मे सहयोगी हुआ है, उनमे मे जिनका प्रत्यक्ष उपयोग हुया है, उनका तो उल्लेख संदर्भ ग्रन्थ सूची में हो गया है, तथापि ऐसे भी अनेक ग्रन्थराज है, जिनका उपयोग प्रत्यक्ष रूप से न होने के कारगा उल्लेख मंभव नहीं हो पाया है, पर उनका परोक्ष सहयोग अवश्य हुअा है। तदर्थ मभी के प्रति श्रद्धावनत हूँ। यदि इम कृति के अध्ययन मे आपको कुछ मिले तो आपमे अनुरोध है कि अपने प्रियजनो को भी वचित न रखें । यदि एक भी पाठक ने इममे जिनवागी का मर्म समझने का मार्ग प्राप्त कर लिया तो मै अपने श्रम को मार्थक ममऊंगा। जिनवर की बात जन-जन तक पहुँचे और ममम्त जन निज को समझकर कृतार्थ हो- इम पावन भावना के माथ अपनी बात मे विगम लेता है। - (डॉ.) हुकमचन्द भारिल्ल
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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