SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शनका स्थान निश्चय ही इन दोनों महापुरुषोसे पहिले भी सुदूर प्राचीन कालमें चौद्ध और जैन शासनके मूलतत्त्व सूत्ररूपसे प्रचलित थे। हां, इन तत्वोंका सुस्पष्ट रूपमें प्रचार करना, इनके माधुर्य एवं गाम्भीर्यकी ओर जनसमूहको आकर्षित करना तथा ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करना कि जिसमें आबालवृद्ध समस्त नरनारी उन तत्त्वोंका आदर करे, इसे उन महापुरुषोंने अपने जीवनका एक गौरवमय व्रत बना लिया था। मूलतत्त्वकी दृष्टि से तो भगवान बुद्ध और महावीर स्वामीके जन्मसे बहुत समय पूर्व चौद्ध मत और जैनधर्म विद्यमान थे। दोनों मत प्राचीन है, और उपनिषदोंक समान प्राचीन कहे जा सकते है। चौद्ध तथा जैन मतको उपनिषदोंका समकालीन माननेके लिये कोई विशेष प्रमाण नहीं है और ये धर्म उपनिपढोंके समान प्राचीन नहीं माने जा सकते, इस प्रकारका तर्क करना ठीक नहीं है। उपनिषदोंने खुल्लमखुल्ला वेदोंका विरोध नहीं किया अत एव उनके माननेवालोंकी' संख्या अन्योंकी अपेक्षा बहुत अधिक थी। अवैदिक मतावलम्बी प्रारम्भिक अवस्थामें कुछ शंकाग्रस्त थे अत एव उन्हें मैदानमें आनेके लिये बहुत समयकी प्रतीक्षा करती पड़ी होगी । वे लोग अप्रकट थे, परन्तु तात्त्विक दृष्टिसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे उपनिषद्-कालमें विद्यमान ही नहीं थे, क्यो कि जिस समय चिन्तनशील, साधक या तपस्वी जन तत्त्वचिन्तामें तल्लीन थे उस समय उन्होंने केवल उपनिषदों में वर्णित मार्गकी ही खोज की हो यह असम्भव है । उस समय सभीको विचार और चिन्तनकी पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी और इस विचारस्वातन्त्र्यके प्रतापसे अनेक अवैदिक मतोंकी उत्पत्ति हुई थी। अन्य मत
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy