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________________ जिनवाणी - उसे बौद्धधर्मसे भी प्राचीन मान लिया। इस सब वादानुवादमें यद्यपि एक प्रकारकी जिज्ञासावृत्ति - सत्य वस्तु खोज निकालनेकी इच्छा - अवश्य पाई जाती है और वह आदरणीय है, परन्तु इस प्रकारका वादविवाद कर्णमनोहर होने पर भी मेरी दृष्टिमें अधिक मूल्यवान नहीं है। उसकी आधारशिला ही जितनी होनी चाहिए उतनी मजबूत नहीं होती है। यदि हम मानवीप्रकृति पर विचार करे तो हमे स्वीकार करना पड़ेगा कि चिन्तन और मनन मनुष्य - प्रकृतिका एक विशिष्ट लक्षण है । अर्थात् दीर्घ कालसे मानवसमाजमें- मानवहृदयमें अध्यात्मचिन्तन और तत्त्वविचारकी धाराएं प्रवाहित है। हम जिस कालमें मनुप्यसमाजको अर्थहीन कर्मकाण्डके भारसे सर्वथा दवा हुवा मानते हैं उस समय - प्रारम्भिक अवस्थामे भी कुछ न कुछ आध्यात्मिकता तो अवस्य ही होगी । वास्तवमें सामाजिक बाल्यावस्थामे जो गुप्त मूढता होती है उसके कर्मकाण्ड आध्यात्मिकताकी भूमिकास्वरूप होते है । वह आध्यात्मिकता यथावत् विकसित नहीं होती, तथापि समाजकी प्रत्येक अवस्थामें कुछ न कुछ विचारविकास, तत्कालीन नीति-पद्धतिमें क्रान्ति उत्पन्न करनेकी मनोभावना और इस प्रकार आदर्शकों क्रमशः उच्चतम बनानेकी आकांक्षा अहनिंग जागृत रहती हैं। यही कारण है कि किसी भी दर्शनकी जन्मतिथिका निर्णय करना असम्भव हो जाता है। भिन्नभिन्न आचायांद्वारा निर्मित दर्शनोंका सूक्ष्म चीज उनसे पूर्व भी विद्यमान रहता है। बौद्ध मतका प्रचार बुद्ध भगवानने किया है और जैन मतका प्रथम श्री वर्धमान महावीर स्वामीने किया है यह एक गलत ख्याल है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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