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________________ जिनवाणी वादोंकी अपेक्षा उपनिषढमें कोई विशेषता नहीं है कि जिससे हम उपनिषदको प्रथम नम्बर दे सके। ____ अब, यदि वैदिक और अवैदिक मतवादका प्रादुर्भाव एक ही कालमे हुवा हो, उनमें उत्तरोत्तर उत्कर्ष हुवा हो तो उन सबमे बहुत सी वातोंमें समानता होनी चाहिये। यह विषय अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और इसी लिये यह बात अत्यन्त युक्तिसंगत मानी जाती है कि किसी एक भारतीय दर्शनका अध्ययन करना हो तो प्रसिद्ध भारतीय दर्शनोंक साथ उसकी तुलना करनी चाहिये। साधारणतः भारतीय दार्शनिक मतवादमें जैन दर्शन एक उच्च प्रतिष्टापूर्ण स्थानमें अवस्थित है, और विशेषतः जैन दर्शन एक पूर्ण दर्शन है। तत्त्वविद्याके सभी अङ्ग इसमें विद्यमान है । वेदान्तमे तर्कविद्याका उपदेश नहीं है; वैशेषिक कर्माकर्म और धर्माधर्म विषयमें मौन है; परन्तु जैन दर्शनमें न्यायविद्या है, तत्त्व-विचार है, धर्मनीति है, परमात्म तत्त्व है और अन्य भी बहुत कुछ है। प्राचीन युगके तत्त्वचिन्तनका वास्तवमें कोई अमूल्य फल है तो वह जैन दर्शन है। जैन दर्शनको छोड़कर यदि आप भारतीय दर्शनकी आलोचना करने लगे तो वह अपूर्ण ही रहेगी। मै जिस पद्धतिसे जैन दर्शनकी आलोचना करना चाहता हूं उसकी ओर ऊपर संकेत कर चुका हूं। मेरी आलोचना संकलनात्मक अथवा तुलनात्मक है। इस प्रकारकी आलोचना करना ज़रा कठिन काम है; क्यों कि इस प्रकारकी आलोचना करनेवालेको समस्त भारतीय दर्शनोंका
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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